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दिगम्बर जैन साधु
[ ५५३ 'वर्णी' एक चिरपरिचित सा नाम, कानों में मीठा रस घोलता हुना आंखों के समक्ष आज भी गुरु शिष्य की ऐसी साकार प्रतिमा स्थापित कर देता है कि परोक्ष में श्रद्धावनत माथा बारम्बार उनकी जय बोल उठता है । रुचियां सदृश हों तो संगति का मेल फल और भी मोठा हो जाता है अपने लिए भी और समाज के लिए भी । गांव का रहने वाला मनोहर गुरु गणेश वर्णी के चरणों का आश्रय पाकर समाज के लिए सहज आनन्द का स्रोत वन उठा । वि० सं० २००२ में वाराणसी में पूज्य क्षुल्लक श्री गणेशवजी से सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये तो गुरु ने आपका नाम 'सहजानंद' रखा जिसे आपने अपने वक्तृत्व-कर्तृत्व से सार्थक कर दिखाया। विराग की धारा ने गति पकड़ी तो सं० २००५ में सुरम्य क्षेत्र हस्तिनापुर में पूज्य वर्णीजी से ही क्षुल्लक पद की दीक्षा अंगीकार कर ली। गुरु शिष्य की इस जोड़ी ने सात दशक तक श्रावक वर्ग पर जितना उपकार किया वह शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता।
क्षुल्लक मनोहरजी सहजानंद के ज्ञान का क्षयोपशम उत्कृष्ट था । अपने जीवनकाल में ५०० से अधिक ग्रन्थों का निर्माण कर जिनशासन के रहस्य को जन-जन तक पहुंचाने का महान कार्य किया। सहारनपुर, हस्तिनापुर मेरठ में शिक्षा संस्थाएं स्थापित करायीं तथा आत्मविज्ञान परीक्षा वोर्ड की स्थापना की । वर्णी प्रवचन पत्रिका में जैनसिद्धान्त पर सुबोध शैली में हजारों लेख लिखकर समाज में स्वाध्याय की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया । आज भी वर्णी पत्रिका का प्रकाशन व सम्पादन पं० सुमेरचन्द्रजी द्वारा वरावर हो रहा है । आपका अधिकांश समय मेरठ मुजफ्फरनगर में व्यतीत हुआ। दो वर्ष पूर्व ही समाधिपूर्वक आपका स्वर्गवास मेरठ में हो गया।