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दिगम्बर जैन साधु सर्प ने काट खाया किन्तु धर्म में विश्वास था । आपने किसी प्रकार का औषधि उपचार नहीं कराया और . धैर्य धारण कर महावीरजी चले गये, दूसरे दिन चतुदर्शी का व्रत था इस प्रकार आप अपने आप निविष हो गये । तब तीसरे दिन अन्न जल ग्रहण किया । इसप्रकार गृहस्थ में रहते हुए भी जीवन के साठ वर्ष बिता दिये । एक समय शास्त्र स्वाध्याय करते हुए आप पंच परिवर्तन का स्वरूप पढ़ रहे थे । उसको पढ़कर आपकी आत्मा दुःखों से कांप गई और निर्णय लिया कि तुरन्त मुनि दीक्षा धारण कर और आत्म कल्याण के मार्ग पर चलू । जेष्ठ शुक्ल सं० २०३१ को मुनि दीक्षा धारण कर वीतराग मुद्रा धारण कर ली और अब आत्म चिन्तन करते हुये मोक्ष मार्ग के पथ पर अग्रसर हैं ।
मुनि श्री शान्तिसागरजी महाराज आपका जन्म पोरसा (ग्वालियर ) में हुआ, माता सुखदेवीजी की कूख से जन्म लिया। आपके पिता का नाम श्री समनलालजी था । आपका पूर्व नाम श्री उग्रसेनजी था। आपको संस्कृत तथा हिन्दी का सामान्य ज्ञान था। आपने अहिक्षेत्र में क्षुल्लक एवं ऐलक दीक्षा कुन्थसागरजी महाराज से ली एवं हस्तिनापुर में मुनि दीक्षा लेकर आत्म कल्याण कर रहे हैं । जगह जगह प्राप पाठशालाएं खुलवा कर ज्ञान प्रचार का कार्य कर रहे हैं।
मुनि श्री चन्द्रसागरजी महाराज
धन्य है वे महापुरुष जिन्होंने भवभोगों से मुख मोड़कर दुर्द्ध र तप को अंगीकार करके शिवमहल की ओर अपना पग बढ़ाया। बाल ब्रह्मचारी श्री गंगारामजी जैन की जीवन गाथा भी उन्हीं में से एक है । फुलावली (भिण्ड ) ग्राम से विराग की बांसुरी बजाता हुआ सि० सूरजपाल का पुत्र जब कभी साधुओं की संगति में भिण्ड की ओर जाता था तो माता जवाहरबाई उसके लौटने तक शंकित ही बनी रहती कि कहीं लाडला उन्हीं की जमात में न मिल जाय । श्रत पंचमी सं० १६५८ को जब उसने अपनी कंख से जन्म दिया था तभी से वह एक सुनहले संसार में खोयी रहती थी और गंगाराम था सो मन ही मन उस घरोंदे को उकसता
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थी और गंगाराम था स