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दिगम्बर जैन साधु झुवरलाल रूखवदास वोरालकर अंजनीखुर्द ( वुलढाणा ) अपने पिता श्री रूखवदास घोंडीवा वोरालकर माता देवकीवाई के अनेक प्रयासों के बावजूद भी जल से भिन्न कमलवत् गृहस्थी से अलिप्त से बने रहे । १८ मई १९१८ को आपके जन्म के उपरान्त परिवार में आनन्द की जो लहर दौड़ी थी वह २३ जून ७४ से क्षीण हो चली। जब आपने पू० प्राचार्य श्री निर्मलसागरजी महाराज से सिंदखेडाराजा में ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दीक्षा ले ली । यही नहीं उसी वर्ष १० अक्टूबर (७४) को
औरंगाबाद के राजा बाजार मंदिर में पूज्य श्री से ही क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर सच्चिदानंद की प्राप्ति के लिये अपने पग बढ़ा दिये । हर जैन श्रावक परिवार में एक क्षीण धर्म की ज्योति सदैव टिमटिमाती रहती है । बस थोड़ा सा बाह्य संयोग भर का इंतजार रहता है। वह जिसे समय पर मिल पाया उसके सच्चिदानंदमय बन जाने में भला विलम्ब कहां। शास्त्रवाचन चिंतन-मनन से वैराग्य की दिशा में मन उन्मुख हुआ सो फिर रुका नहीं । क्षुल्लक विद्यासागर के रूप में अब आज हमारे सम्मुख धर्मामृत की वर्षाकर महान उपकार कर रहे हैं। अपने दीक्षा काल से लेकर अब तक आपने नौरंगाबाद, कुम्भोज, बाहुबली, हराल, अंबड, चिंचवाड वसागड़े और परभणी में चातुर्मास करके श्रावकों को रत्नत्रय के मार्ग में अग्रसर करने का महान कार्य किया है ।