________________
५०२ ]
दिगम्बर जैन साधु मुनि श्री वर्द्धमानसागरजी महाराज
__ जिला बांसवाड़ा (राजस्थान) के ग्राम खांदू के श्रावकों में अग्रणी श्री सुन्दरावत जयचन्दजी के यहां भाद्रपद शुक्ला १४ ( अनंत चतुर्दशी) विक्रम संवत् १९६६ को एक बालक ने जन्म लिया। वालक का नाम रतनलाल रखा गया। आपकी माता का नाम भूरीबाई था । आपके दो बड़े भाई श्री नेमीचन्द और साकरचन्द हुए। आपका गौत्र नरसिंहपुरा है । श्री जयचन्दजी एवं भूरीबाई दोनों ही अत्यन्त धार्मिक प्रकृति के थे । बालक रतनलाल पर अपने माता पिता के संस्कारों का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा । चूकि आप अपने भाईयों में छोटे थे इसलिए आपको सभी का असीम स्नेह मिला।
.
e
जव आप पांच वर्ष के हुए तो आपका नाम गांव की प्रारंभिक पाठशाला में लिखा दिया गया। आप कुशाग्र बुद्धि के थे, अतः सदा कक्षा में प्रथम आते। आपने संस्कृत तथा हिन्दी में विशारद तक शिक्षा प्राप्त की । आप बचपन से ही गृहस्थ वन्धन से मुक्त होना चाहते थे। जब आपकी अवस्था २० वर्ष की हुई तो माता-पिता ने आपके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा । किन्तु पाप पर तो रंग ही दूसरा चढ़ चुका था। अतः आपने विवाह के बन्धन को स्वीकार न कर आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया और २० वर्ष की अवस्था में ही घर छोड़ कर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के पास जा पहुंचे । विक्रम संवत् १९८८ में जावरा (मालवा) में सेठ केशरीमल मोतीलालजी द्वारा कराई गई पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर प्राचार्य वीरसागरजी महाराज से आठवीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिये । तव आपका नाम ब्रह्मचारी ज्ञानसागर रखा गया ।
लगातार कई वर्षो तक आप आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के संघ में रहे । आचार्य श्री के संघ में प्रथम चातुर्मास इन्दौर में किया। बाद में आप आचार्य महावीरकीतिजी के संघ में भी
काफी समय तक रहे । मिति आसाढ़ सुदी १ संवत् २०२८ को सरूरपुर ( मेरठ ) में मुनि दीक्षा . ग्रहण की। आपका नाम मुनि वर्द्धमानसागर रखा गया।