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दिगम्बर जैन साधु
[ ३६३ उनका विशाल अध्ययन तथा समन्वयात्मक स्वतन्त्र व व्यापकदृष्टि शब्दों द्वारा वर्णन नहीं की जा सकती । जैन वाङ्गमय का तो सांगोपांग गहन अध्ययन उन्होंने किया ही है; परन्तु इसके अतिरिक्त न्याय, वैशेषिक, सांख्य योग वेदान्त शैव व शाक्त आदि दर्शनों में भी उनकी अच्छी गति है। शब्द पढ़कर उन्हें याद कर लेना अथवा शाब्दिक व साम्प्रदायिक बन्धन में जकड़े रहना उन्हें पसन्द नहीं है । स्वतन्त्र वातावरण में खड़े होकर केवल तत्व दर्शन करने पर ही उन्हें विश्वास है । यही कारण है कि उनकी कथन व लेखन शैली बिल्कुल स्वतन्त्र है, जिसमें उपरोक्त सभी दर्शनों के सिद्धान्तों व शब्दों का समावेश रहता है । आधुनिक युग के वैज्ञानिक दृष्टान्त देकर तथा सामान्यः भाषा का प्रयोग करके वर्तमान युग के पढ़े लिखे व्यक्तियों के लिये अत्यन्त विमूढ़ तात्विक रहस्य को भी सरल बना देना उनकी विशेषता है । उसमें साम्प्रदायिकता का लेश भी नहीं होता। यही कारण है कि जैन व अजैन साधारण व्यक्ति से लेकर बड़े बड़े डाक्टर्स तक उसे रुचि पूर्वक सुनते व पढ़ते हैं।
उपरोक्त सभी स्थानों में दिये गये उनके विद्वत्ता पूर्ण रहस्यात्मक प्रवचन दो ग्रन्थों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं । “शान्ति पथ प्रदर्शन" और नय दर्पण । इनमें से पहला आध्यात्मिक है और दूसरा स्याद्वाद न्याय विषयक । इनकी एक महान कृति "जैन सिद्धान्त शिक्षण" भी है जो अभी अप्रकाशित है, यह ग्रन्थ वीतराग वाणी को समझने के लिये गागर में सागर के समान है । पाशा की जाती है कि जैन सिद्धान्त शिक्षण भी शीघ्र ही प्रकाशित होगा। इनके अतिरिक्त कुन्दकुन्द दर्शन, कर्म सिद्धान्त, पदार्थ विज्ञान, श्रद्धा बिन्दु, अध्यात्म लेख माला आदि अन्य भी अनेकों ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं । जिनमें इन सबसे ऊपर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष तो उनके जीवन का एक चमत्कार ही है। ४००० बड़े पृष्ठों में निबद्ध समस्त जैन वाङ्गमय का यह महाकोष उनके विशाल अध्ययन, कर्मनिष्ठा, संकल्प शक्ति व अथक परिश्रम का जीता जागता प्रमाण है । जैन वाङ्गमय का कोई विषय ऐसा नहीं जिसका पूरा परिचय वर्णानुक्रम से इसमें न दिया गया हो, यह आदर्श कृति भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुकी है । इसके साथ साथ ही एक और चमत्कार किया है जो जैन संस्कृति भिन्न भिन्न सम्प्रदायों में बिखरी हुई थी उसको बाबा विनोबा भावेजी के संकेत मात्र से, अथक परिश्रम करके चारों सम्प्रदायों की एक पुस्तक जैन धर्मसार तयार की और सर्व सेवा-संघ प्रकाशनः से छपकर देश के विद्वत विद्वानों के हाथ में पहुँचा दी गई इस पुस्तक का नाम समणसुत्त है । असाता कर्म के उदय से आपने क्षुल्लक पद छोड़ दिया तथा सामान्य श्रावक के रूप में रहने लगे। . पुनः प्रापके मन में वैराग्य प्राया तथा प्राचार्य विद्यासागरजी से क्षुल्लक दीक्षा २१ अप्रेल १९८३ को ईसरी में ली । आपका नाम क्षु० सिद्धान्तसागर रखा गया । २४ मई १९८३ को ईसरी में आपका समाधिमरण हुवा ।