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दिगम्बर जैन साधु वर्ष की उस भरपूर युवावस्था (इस उम्र में सामान्यतया लोग विलासिता के विस्तरों पर पड़े हुए मीठे सपनों में खोये रहते हैं ) में आप गृह त्याग कर मंदारगिरि पहाड़ ( जिला तुमकूर ) में पहुंचे। वहाँ उस समय एक क्षुल्लक पार्श्वकीर्तिजी विराजमान थे वहीं पर आप रहने लगे और उनसे तत्व चर्चा करने लगे । वेदान्त और जैन दर्शन पर वाद विवाद का परस्पर सिलसिला भी चलता रहता था। अंत में आप जैन दर्शन से इतने प्रभावित हुए कि आपने आजन्म ( आजीवन ) ब्रह्मचर्य रहने का व्रत ले लिया और आपका नया नामकरण "श्री चन्द्रकीति" नाम से हुआ।
आपके मन में धीरे धीरे जैन धर्म के प्रति उत्कृष्ट श्रद्धा उत्पन्न हो गई। आप क्षु० पार्श्वकीतिजी के साथ साथ विभिन्न जैन तीर्थ क्षेत्रों के दर्शन करते हुए महामस्तकाभिपेक के पुनीत अवसर पर श्रवण वेलगोला पहुंचे। जिस समय श्री बाहुवली स्वामी ( गोमटेश्वर ) का महामस्तकाभिषेक हो रहा था, उस समय वहाँ लाखों भक्त एवं अनेक मुनिगण उपस्थित थे। आचार्य शिरोमणि श्री १०८ आ० श्री महावीरकीतिजी महाराज के दर्शन करने का सौभाग्य भी आपको वहीं मिला। ज्ञान गरिमा से दीप्त, उत्कृष्ट साधना से परिपूर्ण ऐसे आचार्य श्री महावीरकीतिजी महाराज से आप अत्यन्त प्रभावित हुए और असीम श्रद्धा से मस्तक झुकाकर अापने इनका शिष्यत्व स्वीकार कर मुनि दीक्षा के लिए विनम्र प्रार्थना की । आचार्य श्री ने अनेक प्रश्नोत्तर के बाद आप से दीक्षा के सम्बन्ध में हम्मच पद्मावती में होने वाले चातुर्मास के अवसर पर सपरिवार आने के लिए कहा । वैराग्य की उत्कृष्ट भावना लिए हुम्मच पद्मावती में आप सपरिवार पहुंचे । अनेकानेक प्रश्नोत्तर के वाद आचार्य श्री ने आपके पारिवारिकजनों से अनुमति लेकर दिनांक ६-७-६७ रविवार को पुष्य नक्षत्र एवं सिंह लग्न में आपको निम्रन्थ मुनि दीक्षा दी। जिस समय आपने समस्त वस्त्रो का त्याग किया, उस समय आकाश भक्तजनों की तुमुल हर्षध्वनि से गुजित हो उठा। आपका मुनि नाम श्री संभवसागर रक्खा गया । २२ वर्ष की आयु में ब्रह्मचर्य व्रत एवं २५ वर्ष की आयु में मुनि दीक्षा लेकर आपने सम्पूर्ण जैन जगत को ही नहीं अपितु समस्त देश वासियों को चमत्कृत कर दिया। विभिन्न स्थानों कुन्थलगिरि तीर्थ, गजपंथा, मांगीतुगी, गिरनार आदि तीर्थ क्षेत्रों पर आपने आचार्य श्री गुरु के संघ के साथ चातुर्मास किया। गिरनारजी तीर्थ क्षेत्र पर प्रा० श्री महावीरकीतिजी महाराज पर वैष्णव वावाओं द्वारा उपसर्ग किया गया जिसे आचार्य श्री ने समतापूर्वक सहन किया तथा अहिंसा एवं क्षमा के बल पर विरोधियों को झुकना पड़ा।
मुनिश्री का जोवन शीतल और स्वच्छ जलधारा की तरह निर्मल है। भव्य जीवों को वह यह वोध दे रहा है कि संयम और साधना के द्वारा वूद भी समुद्र बन सकती है । एक बूंद का सागर