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दिगम्बर जैन साधु प्रायिका अनन्तमतीजी
एक तपस्विनी नारी के कंकाल मात्र शरीर में कितनी सशक्त, कितनी तेजस्वी आत्मा निवास करती है यह जानना हो तो आर्यिका अनन्तमतीजी के दर्शन कर लीजिये। रोग की पीड़ा, अन्तराय का क्षोभ और कठोर क्लांति की साधना उनके मुख पर कदापि नहीं पावेंगे। आप एक ऐसी आयिका हैं जो वर्ष में ३-४ मास ही आहार लेती हैं । प्रायः मौन रहकर धर्म ध्यान में लीन रहती हैं ।
__ तपस्विनी आर्यिका अनन्तमतीजी का जन्म १३ मई १९३५ को गढ़ी गांव में हुआ था। आपके पिता लाला मिट्ठनलालजी थे और माता पार्वतीदेवी थी। दोनों ही धर्मपरायण थे। स्थानकवासी मान्यताओं के विश्वासी थे । आपके तीन पुत्र व चार पुत्रियां हुई । जिनमें से चौथी का नाम इलायची देवी था और जिसने इस युग में इलायची कुमारी की कहानी दुहरा दी।
बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने से परिवार के लोग गढ़ी छोड़ कर कांधला आ गये थे। इलायची देवी ने ८ वर्ष की आयु से ही त्याग की दिशा में बढ़ना शुरू किया। कांधला में बालिका स्थानक और दिगम्बर जैन मन्दिर दोनों जगहों पर जाने लगी और दोष मूलक वस्तु जानकर त्याग करने लगी। १३ वर्ष की अवस्था में तो रात्रि में पानी तक पीने का आजीवन त्याग कर दिया।
जब आपने भगवान महावीर का जीवन चरित्र पढ़ा तब आपके मन में यह सुदृढ़ विश्वास हुआ कि अपरिग्रह मूलक दिगम्बर परम्परा से ही आत्मकल्याण होगा अन्यथा नहीं। फलतः प्राप जहां कट्टर दिगम्बर परम्परा की पोषक बनी वहां महावीर-सी विरक्ति हेतु तरसने लगीं। आप भोग से योग की ओर चलने का उपक्रम करने लगीं। जिन आभूषणों के लिए अन्य स्त्रियां प्राण देती हैं उन्हें आपने हमेशा के लिए त्याग दिया। जिस वासना की पूर्ति के लिए अन्य महिलाएं अनेक कुकृत्य करने में भी संकोच नहीं करती हैं आपने उस वासना का बलिदान ब्रह्मचर्य व्रत लेकर कर दिया । यद्यपि आप अभी न क्षुल्लिका थो नायिका तथापि आपकी साधना उनसे किसी प्रकार कम नहीं थी।
आप घण्टों सामायिक करती, लोग देवी कहकर पूजते, दर्शनों के लिए भक्त उमड़ते, आशीर्वाद पाकर फूले नहीं समाते । आप विचारती कि बिना दीक्षा लिये जब यह हाल है तो दीक्षा लेने पर क्या होगा। १८ वें वर्ष में आपने दीक्षा लेने का विचार परिवार के सामने रखा तब परिवार ने घर में ही रहकर साधिका बनने के लिए कहा-पर अगले वर्ष जब आचार्य रत्न देशभूषणजी महाराज विहार करते हुए आ गये तव अपूर्व अवसर हाथ आया जानकर आपने दीक्षा देने के लिए -