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दिगम्बर जैन साधु क्षुल्लक श्री वृषभसेनजी महाराज
पंच परावर्तन चक्र में भ्रमण करते हुए जीव को दो चीजें सदा अलभ्य ही बनी रहीं। एक तो सद्गुरु की संगति और दूसरी जिनधर्म की प्राप्ति । वैसे नरतन पाया तो अनेक बार परन्तु हर वार की कहानी एक नयी कहानी गढने के सिवाय कुछ और मुखरित नहीं हो सकी। शलाका पुरुषों का चारित्र जानने वाले भी इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि कर्म बिना किसी भेदभाव के अपना रस देने में जरा भी कंजूसी नहीं करते । यदि ऐसा न होता तो धर्म का इतिहास ही भ० वृषभदेव के समय से कुछ और ही लिखा जाता। अ० लाट (कोल्हापुर) के बलवंतराव भी अपने अनेक जन्मों के उत्थानपतन की कहानी समेटे हुए आश्विन कृ० १४ वी० सं० २४३५ सन् १९०८ को घुलाप्पा जनकाप्पा गिरिमल्ल के घर में जन्मे तो काललब्धि का साया लेकर ही जन्मे । शान्तप्पा लाल के लिए सुखद सपने संजोती हुई इस तथ्य से सर्वथा बेखबर ही रही कि विराग की प्रतिध्वनियां प्रांगन में गूजने लगी । भला सुकोमल मातृत्व ने उसके अतीत के संस्कारों की ओर झांकने की फुर्सत ही कब समझी। सन् १९६२ में वैशाख शु० १० की वह धन्य घड़ी भी आ पहुंची जब करुणानिधान पू० १०८ आ० श्री देशभूषणजी महाराज के दर्शन का सौभाग्य बलवंतराव को अनायास ही मिल गया। आसन्न भव्य की काललब्धि आ चुकी थी । संसार सागर से तिरने के लिए भव्यात्मा ने गुरु चरणों में निवेदन कर विराट् जनसमुदाय के समक्ष केशलोंच करके क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली और आपका नाम वृषभसेन घोषित हुआ । संसार सागर से तिरने के लिए पंथी को गुरुचरणों का आश्रय मिला । निरत स्वाध्याय करते हुए आपने जिनागम के रहस्य को प्रकट करने वाली हिन्दी मराठी कन्नड़ भाषाओं में अनूठी रचनाएँ की जिनमें आहार शुद्धि और चौका विधान, अंडी आणि दूध, समाधिमरणोत्सव, अहिंसेचा विजय कृतियां प्रमुख हैं।
७१ वर्ष की अवस्था में भी आप निरतिचार चारित्र का पालन करते हुए ग्राम ग्राम में भ्रमण कर धर्म प्रभावना कर रहे हैं । निश्चय ही आज के समय में साधु समुदाय के समक्ष स्थितिकरण का महान कार्य उपस्थित है । पू० श्री वृषभसेनजी महाराज अहर्निश इस कार्य में लगे हुए हैं यह हम श्रावकों का अहोभाग्य ही है । अन्यथा इस कलिकाल में ऐसा सुमार्ग किसे कब कब मिल पाता है (खद्योतवत्सुदेष्टारौ हा द्योतन्ते क्वचित्) ।