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दिगम्बर जैन साधु
[ १३५ जब आपको उम्र लगभग २७ वर्ष की होगी आपके पिता श्री को एक साधारण सी बीमारी ने पीड़ित किया । उनको यह आभास हुआ कि अब हमारा जीवन अन्तिम लहरमें तैर रहा है। कौन. जानता था कि सचमुच यह साधारण सी बीमारी ही इनको प्राण शून्य कर देगी । आपने जीवन को असम्भव जान समाधि ले ली और निर्मल आत्मा में अनन्त गुणों से युक्त भगवान जिनेन्द्रदेव का स्मरण करते हुये असमय ही आपकी आत्मा पार्थिव शरीरको छोड़कर स्वर्ग के सुख में लवलीन. हो गई।
दुखित हृदया माँ ने संसारकी इस नश्वरताका प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए निश्चय किया कि असारता से सारता को जाने के लिए जिनेन्द्र भक्तिरूपी वाहन का अवलम्बन लेना ही श्रेयस्कर है। इसके लिए त्याग तपस्या की आवश्यकता है । पति श्री की मृत्यु के बाद ७ वर्ष तक आपने अपनी शक्ति अनुसार जिनेन्द्र भगवान की आराधना करते हुए त्याग और संयम का पालन किया। अन्त समय में समाधि मरण लेकर अतुल सुख से परिपूर्ण ऐसे स्वर्गों में, अपने पुत्र पौत्रों को इस धरातल पर छोड़कर सदा के लिये चली गई।
माता पिता के स्वर्गारोहण हो जाने से फागोलालजी को संसार की असारता का भाव उद्भापित हुआ। अपने हृदय में त्याग तप साधना ही आत्मकल्याण का हेतु है ऐसा विचार कर घर पर रहते हुए आत्म-कल्याण का कारण त्याग, उपवास, संयम आदि धार्मिक क्रियाएं करने लगे। कलकत्ते में "छोगालाल गोविन्दलाल" के नाम से आपका कपड़े का थोक व्यापार होता था। आपका वड़ा पुत्र भी आपके व्यापार में योग देने लगा, श्रीमान् पं० ब्रह्मचारी सुरेन्द्रनाथजी, श्री ब्रह्मचारी श्रीलालजी काव्यतीर्थ एवं श्रीबद्रीप्रसादजी पटना वालों के साथ आपको शास्त्रीय चर्चाएं तथा ज्ञान गोष्ठियां होती थी। ज्ञानार्जन के इस अभ्यास के द्वारा आप शास्त्रीय विद्वान हो गये। आपके अन्तर में गृह त्याग की भावना दिन प्रतिदिन बढ़ती गई, फलतः आप ४० वर्ष की तरुण वय में आजन्म ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेकर ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने लगे।
विक्रम सम्वत् २००६ को उदासीन आश्रम ईसरी में आपने परम पूज्य आचार्यवर श्री वीरसागरजी महाराज के प्रथम दर्शन किये थे। तभी से आपकी आत्म-कल्याण की भावना का प्रबलतम उदय हुआ था और उसी समय से सांसारिक वैभव नीरस एवं जल बुदबुदे के समान प्रतीत होने लगे। फलतः घर पर पाकर आप उदासीन वृत्ति से रहने लगे । फिर भी आपको हृदय में पूर्णत: शान्ति नहीं मिली और सम्वत् २०११ में टोडारायसिंह ( राजस्थान ) में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज के समीप ७ वी प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिये । इन व्रतों के लेने से आपकी आत्मा में अटूट वैराग्य भावनारूपी ज्वाला ज्वलित होने लगी। फलतः चार माह बाद ही टोडारायसिंह में कार्तिक सुदी १३ संवत् २०११ में ही आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज से आपने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर ली