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दिगम्बर जैन साधु.. . प्राचार्यश्री मेरे दीक्षा गुरु हैं अतः मैंने उन्हें असाधारण व्यक्तित्व सम्पन्न एवं अनुपम चारित्रनिधि आदि विशेषणों से अलंकृत किया हो ऐसी बात नहीं है । जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा की शीतलता और जलधिका गाम्भीर्य प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है उसी प्रकार महापुरुषों के व्यक्तित्व को निखारने की आवश्यकता नहीं होती वह स्वतः निखरित होता है । महापुरुष जिस ओर . चरण बढ़ाते हैं वही मार्ग है, जो कहते हैं वही शास्त्र है और जो कुछ करते हैं वही कर्तव्य बन जाता है। . महापुरुष तीन प्रकार के होते हैं । (१) जन्म जात (२) श्रम या योग्यता के बल पर (३) कृत्रिम जिन पर महानता थोपी जाती है । आचार्यश्री जन्म जात महापुरुष तो हैं ही किन्तु योग्यता के वल पर बने महापुरुष भी उन्हें कहा जावे तो अतियोशक्ति नहीं होगी। आपके विशाल व्यक्तित्व की प्रामाणिकता में सबसे बड़ा कारण है आपका निर्दोष आचार ।
समस्त भारत वर्ष की सभी संस्थाओं एवं जैन समाज की ओर से तथा दि० जैन नवयुवक मण्डल, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित एवं प्राचार्य कल्प श्री श्रुतसागरजी एवं मुनि वर्धमान सागरजी के मार्ग निर्देशन में न० धर्मचन्द शास्त्री के द्वारा सम्पादित अभिवन्दन ग्रन्थ ५० हजार जनसमुदाय की उपस्थिति में आपको समर्पित किया गया, पर आपने ग्रन्थ लिया नहीं तथा प्रकाशक एवं संयोजन करने वाले सभी बन्धुओं को फटकारा । धन्य है आपका त्याग ! जहां पर मानव पद लिप्साओं को छोड़ने में समर्थ नहीं है वहाँ पर आपने समस्त समाज के सामने ग्रन्थ लेने से इंकार कर दिया । ।
ऐसे स्वपर कल्याणकारी महापुरुष के चरणों में मानव का शीश स्वयं ही झुक जाता है . और उसकी हृदतंत्री से स्वतः ही यह भावना मुखर उठती है कि ऐसे युग पुरुष सदियों तक मानव मात्र का पथ प्रदर्शन करते रहें और अपने आध्यात्मिक बल से मूच्छित नैतिकता में प्राण प्रतिष्ठा करते रहें । इन्हीं भावनाओं के साथ करुणा के असीम सागर, आर्ष परम्परा के निर्भीक संरक्षक, अध्यात्मवाद के साक्षात् आचरण कर्ता, अतिसरल, सत्य के तेजःपुन्ज, छल, कपट से अनभिज्ञ, उच्चकोटि के सादगी प्रिय, क्रोध से सहस्रों कोस दूर, स्याद्वाद के प्रबल समर्थक, सरलता के मूर्तिमान, निस्पृही व्यक्तित्व, जन जन के वंद्य आचार्यश्री के परम पावन चरणों में मुझ अल्पज्ञ शिष्य के शतसहस्र . प्रणाम !