________________
दिगम्बर जैन साधु
११६ ]
गृह त्याग एवं क्षुल्लक दीक्षा :
बड़नगर चातुर्मास के पश्चात् आचार्य कल्प श्री चन्द्रसागरजी महाराज इन्दौर नगर में पधारे । आपकी छत्रछाया में ब्र० चिरंजीलालजी अपर नाम कजोड़ीमलजी अपने जीवन को दिन प्रतिदिन उन्नत बनाने के लिये प्रयत्नशील थे । पू० श्री चन्द्रसागरजी महाराज ने इन्दौर नगर में धर्म प्रभावना करते हुये भी प्रसंगवश अपने आराध्य गुरुदेव परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती प्राचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज का आदेश प्राप्त करते ही इन्दौर नगर से विहार कर दिया था । उसी समय आप भी गृह त्याग करके संघ के साथ हो गये थे। बावनगजा, मांगीतुंगी आदि क्षेत्रों की वंदना करते हुए नांदगांव कोपरगांव और कसाबखेड़ा नगरों में प्रभावना पूर्ण चातुर्मास श्रा० क० श्री चन्द्रसागरजी महाराज ने किये तथा इन नगरों के प्रास पास के ग्रामों में विहार करके धर्म प्रभावना करते हुए बालुज ( महाराष्ट्र ) में जब संघ पहुंचा तो महाराष्ट्र प्रान्त की जनता गुरु सान्निध्य प्राप्त कर हर्षित थी ।
आपके मन में दीक्षा धारण करने की भावना अवश्य थी और आप अपनी बहिन से इस वात कह भी चुके थे । आप दीक्षा प्राप्त न होने तक विभिन्न रसों का परित्याग भी करते रहते थे । किन्तु दीक्षा के लिए आपने गुरुदेव के समक्ष कभी प्रार्थना नहीं की । दीक्षा लेने विचार गुरुदेव के समक्ष अन्य लोगों के द्वारा पहुंच भी गये थे अतः गुरुदेव ने कहा कि कजोड़ीमलजी (चिरंजीलालजी ) स्वयं आकर कहें तो मैं उनको दीक्षा दूँ और आपके मन में यह भावना थी कि यदि मुझमें योग्यता श्रा गई है तो स्वयं गुरुदेव दीक्षा लेने के लिए कहें तो मैं दीक्षा लूँ । इस प्रकार गुरु शिष्य के मध्य कुछ दिन वात्सल्यमय मानसिक द्वन्द्व चलता रहा । अन्ततः गुरु के समक्ष उन्होंने गुरुदेव के चरणों में दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की । प्रार्थना श्रापको दीक्षा प्रदान की गई ।
शिष्य की हार हुई और करते ही शुभ दिवस में
वालुज नगर की जनता के लिये वह अपूर्व आनन्द की मंगल बेला चैत्र शुक्ला सप्तमी वि० सं० २००१ थी, जिस दिन आपने क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त की थी । दीक्षित नाम क्षुल्लक भद्रसागरजी
रखा गया ।
गुरु वियोग :
क्षुल्लक दीक्षा होने के पश्चात् आपने गुरुवर्य श्री चन्द्रसागरजी महाराज के साथ श्रडल ( महाराष्ट्र ) में सर्वप्रथम चातुर्मास किया । चातुर्मास के पश्चात् गिरनारजी सिद्धक्षेत्र की वंदना हेतु