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दिगम्बर जैन साधु आपके आचार्यत्वकाल में संव विशालता को प्राप्त हो चुका था। उसकी व्यवस्था सम्बन्धी सारा संचालन आप अत्यन्त कुशलतापूर्वक करते थे । कृशंकाय आचार्य श्री का आत्मबल बहुत दृढ़ . . था । तपश्चर्या की अग्नि में तपकर आपके जीवन का निखार वृद्धिंगत होता जाता था। आपके कुशल . नेतृत्व से सभी साधुजन संतुष्ट थे । न तो आपको छोड़कर कोई जाना ही चाहता था और न आपने आत्मकल्याणार्थी किसी साधु या श्रावक को भी कभी संघ से जाने के लिए कहा । आपका अनुशासन अतीव कठोर था। संघ में कोई भी त्यागी आपकी दृष्टि में लाये बिना श्रावकों से अल्प से अल्प वस्तु की भी याचना नहीं कर सकता था। संघव्यवस्था सुचारु रीत्या चले, इसके लिये प्रायः प्रायिका वर्ग में . एक या दो प्रधान आर्यिकाओं की नियुक्ति आप कर दिया करते थे। साधुओं के लिये आपके सहयोगी थे संघस्थ मुनि श्री श्रुतसागरजी महाराज । अनुशासन की कठोरता के बावजूद आपका 'वात्सल्य इतना अधिक था कि कोई शिष्य आपके जीवनकाल में आपसे पृथक् नहीं हुआ। संघ का विभाजन । आपकी सल्लेखना के पश्चात् ही हुआ । आपने एक विशाल संघ का संचालन करते हुए भी कभी . आकुलता का अनुभव नहीं किया।
आपके आचार्यत्व काल में सबसे महत्वपूर्ण एवं सफल कार्य हुया 'खानियां तत्त्व चर्चा' । पिछले दो दशकों से चले आ रहे सैद्धान्तिक द्वन्द्व से आपके मन में सदैव खटक रहती थी। उसे दूर करने का प्रयत्न किया आपने सोनगढ़ पक्षीय व आगमपक्षीय विद्वानों के मध्य तत्त्वचर्चा का आयोजन करवा कर । आपकी मध्यस्थता में होनेवाली इस तत्त्वचर्चा का फल तो विशेष सामने नहीं आया, . किन्तु आपकी निष्पक्षता के कारण उभयपक्षीय विद्वान् आमने-सामने एक मंच पर एकत्र हुए और उन्होंने अपने-अपने विचारों का आदान-प्रदान अत्यन्त सौम्य वातावरण में किया। इस तत्त्वचर्चा यज्ञ में सम्मिलित आगन्तुकों में प्रायः सभी उच्चकोटि के विद्वान् थे । पंडित कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य वाराणसी, पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, पं० मक्खनलालजी शास्त्री, पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य; पं० रतनचन्दजी मुख्तार आदि विद्वानों ने परस्पर बैठकर संघ-सान्निध्य में चर्चा की थी। इस चर्चा को खानियां तत्त्वचर्चा नाम से २ भागों में सोनगढ़ पक्ष की ओर से टोडरमल स्मारक वालों ने प्रकाशित भी किया है।
चर्चा के सम्बन्ध में पं० कैलाशचन्द्रजी ने अपना अभिमत जैन सन्देश ('अंक ७ नवम्बर, १९६७.) के सम्पादकीय लेख में लिखा,था कि "इस .( खानियातत्त्वचर्चा ) के मुख्य प्रायोजक तथा वहां उपस्थित मुनिसंघ को हम एकदम तटस्थ कह सकते हैं, उनकी ओर से हमने ऐसा कोई संकेत नहीं पाया कि जिससे हम कह सकें कि उन्हें अमुक पक्ष का पक्ष है.। इस तटस्थवृत्ति का चर्चा के वातावरण पर अनुकूल प्रभाव रहा है।" ...: