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क्षुल्लक श्री चन्द्रकीर्तिजी महाराज
संकल्प कर लिया ।
आपका जन्म सम्वत् १९५० मिती पौप वदी ६ को अलवर ( राज० ) शहर में प्रधान जैन - जातीय अग्रवाल - गोत्रीय वंश में हुआ है । जन्म-नाम ऋषभदास है । पूज्य मातेश्वरी का नाम रुक्मिणी देवी और पिता का नाम सेढ़मल था । ये जवाहरमलजी, छोटेलालजी, गुलावचन्द्रजी, कालूरामजी इसप्रकार ५ सहोदर भ्राता थे । आप इकलौते पुत्र होने के कारण बड़े ही लाड़-चाव में पले । आपकी चाचीजी ने लाड़ के कारण ही कनक (सोना) नाम डाल दिया । श्रतएव आपका कनकमल नाम ही प्रख्यात हुआ । सं० १९५३ में ही आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। परिवार का विशेष प्यार होने के कारण आपकी शिक्षा की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया गया, परन्तु बाल्यावस्था से ही प्रत्येक कार्यो में आपकी बुद्धि बड़ी ही प्रखर थी । सं० १६६९ में जब यहां क्षुल्लक जानकीलालजी का चातुर्मास हुआ, तब आप उन्हीं की सेवा में विशेष संलग्न रहने लगे तथा बाजार की मिठाई वगैरह अशुद्ध वस्तुओं का खान-पान त्याग दिया । ब्राह्मण वैश्य के सिवा अन्य स्पर्शित ' जल के पीने का भी त्याग कर दिया । और आजन्म ब्रह्मचर्य से रहने का दृढ़ कुटुम्बी जनों ने विवाह के अनेक प्रयत्न किये, परन्तु आप अपने विचारों पर अटल ही रहे और स्वतन्त्र कपड़े का व्यवसाय कर न्यायोपार्जित द्रव्य संचय करते हुए धर्मध्यान, स्वाध्याय, जातीय एवं - सामाजिक कार्यों में ही अधिक समय लगाने लगे । सं० १९७५ में पूज्य मातेश्वरी का वियोग हो गया । " आपका चित्त संसार से बहुत ही उदासीन रहने लगा । सं० १९८३ में श्रापने श्रीसम्मेदशिखरजी की वन्दना की । आप व्यर्थ व्यय के तीव्र विरोधी थे । हाँ धार्मिक कार्यो में बड़े ही उदार-चित्त थे । आपने रविव्रत व रत्नत्रय व्रत के उद्यापन किये । व्यर्थ समझ २५०) रु० के करीब उपकरण, परदे आदि श्री मंदिरजी में ही विशेष भेंट किये । श्राप 'श्री दि० जैन संस्कृत पाठशाला' अलवर के मुख्य संचालक एवं कोषाध्यक्ष थे । पाठशाला के विद्यार्थियों को व भाद्रपद मास में व्रतविधान, उपवासादि करनेवाले व्यक्तियों को श्राप प्रायः प्रीतिभोज दिया करते थे । सं० १९८४ में श्रीसम्मेद शिखरजी में परम पूज्य तपोनिधि, आचार्यवर्य का संघ पधारा और वहाँ आदर्श पंचकल्याणक महोत्सव होने के समाचार प्रायः देश के कौने कौने में फैल गये । आपने भी सुने तो दर्शनों की प्रबल इच्छा हो गई तथा अन्य लोगों से भी चलने का आग्रह किया । तब १०५ यात्रियों सहित सकुटुम्ब शिखरजी पहुंचे । अन्यत्र भी यात्रा करते हुए करीव तीन मास में आप वापिस आये । श्रने के तीन दिवस पश्चात् ही
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