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दिगम्बर जैन साधु
पांचवीं प्रतिमा :
वीर संवत् २४४६ में श्री १०५ ऐलक पन्नालालजी का चातुर्मास नांदगांव में हुआ तब आपने आषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन तीसरी सामायिक प्रतिमा धारण की। श्री ऐलक महाराज के प्रसाद से आपकी विरक्ति प्रतिदिन बढ़ती गई । भाद्रप्रद शुक्ला पंचमी को आपने सचित्तत्याग नाम की पांचवीं प्रतिमा धारण की.. . .. .
चातुर्मास पूरा होने के बाद आपने ऐलक महाराज के साथ महाराष्ट्र के ग्रामों और नगरों में चार माह तक भ्रमण कर जैन धर्म का प्रचार किया, फिर आपने समस्त तीर्थक्षेत्रों की यात्रा की। क्षेत्रों में शक्त्यनुसार दान भी किया। ...
'उस समय इस भू तल पर दिगम्बर मुनियों के दर्शन दुर्लभ थे। महानिधि के समान दिगम्बर साधु कहीं कहीं दृष्टिगोचर होते थे । आपका हृदय मुनिदर्शन हेतु निरन्तर छटपटाता रहता था । आप निरन्तर यही विचार करते थे कि अहो ! वंह शुभ घड़ी कब आएगी जिस दिन मैं भी दिगम्बर होकर आत्मकल्याण में अग्रसर हो सकूगा।
आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन :
- एक दिन आपने आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की ललित कीति सुनी । आपका मन गुरुवर के दर्शनों के लिए लालायित हो उठा । उनके दर्शनों के बिना आपका मन जल के बिना; मछली के समान तड़फने लगा। इसी समय ० हीरालालजी गंगवाल आचार्यश्री के दर्शनार्थ दक्षिण की ओर जाने लगे । यह वार्ता सुनकर आपका मन मयूर नृत्य करने लगा और आपने भी उनके साथ प्रस्थान किया । आचार्यश्री उस समय ऐनापुर के आस पास विहार कर रहे थे। अाप दोनों. महानुभाव उनके पास चले गये । तेजोमय मूत्ति शान्तिसागरजी महाराज के चरण कमलों में आपने अतीव भक्ति से नमस्कार किया, आपके चक्षु पटल निनिमेष दृष्टि से उस संयममूर्ति की ओर निहारते. ही रह गये । आपका मानस आनन्द की तरंगों से व्याप्त हो गया । आपने आचार्यश्री की शान्त मुद्रा को देखकर निश्चय कर लिया कि यदि संसार में कोई मेरे गुरु हो सकते हैं तो यही महानुभाव. हो सकते हैं और कोई नहीं । आपका चित्त आचार्यश्री के पादमूल में रहने के लिये ललचाने लगा। आप गोम्मट स्वामी की यात्रा कर वापस आये और उनसे सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये । कुछ दिन, घर में रहकर आचार्यश्री के पास वीर निर्वाण, संवत २४५० फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, के दिन क्षुल्लक के व्रत ग्रहण किये । अब आप निरन्तर आचार्यश्री के समीप ही ध्यान अध्ययन में रत