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________________ कर्म की अष्ट १२५ जो सङ्कल्प-विकल्प, भावना, ध्यान और निश्चय करता है उनमें एक का भी नाश नहीं होता और कारण बनकर उसका परिगाम कार्य अवश्य होता है । यह भी सृष्टि का नियम है कि जहाँ कर्म का प्रारम्भ होता है वहीं उसका परिणाम ग्राफर शान्त होता है । तड़ाग में एक कड़ों फं किए। जहां वह गिरकर श्राघात करेंगी वहाँ से जल में वृत्त बनना प्रारम्भ होगा जो बढ़ते-बढ़ते किनारे तक जायगा और वहां मकावट पाकर वह वापस लौटना प्रारम्भ करंगा और जहां प्रारम्भ हुआ था उसी केन्द्र में आकर शान्त अथवा विलीन हो जायगा । इसी प्रकार कर्म का फल कर्त्ता के समीप अवश्य श्राता और उसके भीगने पर ही समाप्त होता है । इस विश्व-सागर में हम लोगों के शारीरिक, वाचनिक और मानसिक कर्म अपने जीवात्मारूपी केन्द्र से प्रारम्भ होकर भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक अर्थात त्रिलोक तक अपना प्रभाव पहुँचाते हैं और स्वर्लोकरूपी तट पर पहुँचकर और वहाँ श्राघात पाकर फिर कर्त्ता के पान वापस आते हैं । यही कर्म-फल का तत्व है कर्म की श्रदृष्टता कर्म के फल को प्रदृष्ट कहते है । कारण यह है कि कर्म से जो तात्कालिक परिणाम होता है वह दृश्य इस प्रकार रहता है - शरीर, वचन और मन द्वारा हम लोग जो कुछ
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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