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सत्य ही धर्म है
मिले । मेरे सभी अनुयायियों का भेड़-बकरियों और गाय-बैलों का सा अंधानुकरण वाला स्वभाव बना रहे । इसीलिए वह उन पर अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं की गहरी वारुणी चढ़ाए रखता है। अनेक बेतुकी व असंगत बातों को मानने के लिए मजबूर करते रहता है । न माने तो नारकीय यंत्रणाओं का आतंक और माने तो मुक्ति-मोक्ष का प्रलोभन देता रहता है। उसकी नजरों में धर्म भले छूटे पर सम्प्रदाय बना रहे । क्या दशा हो गई है हम मनु पुत्रों की ? मनन-चिंतन का स्वभाव क्या खो बैठे अंधसम्प्रदाय का भूत सिर पर सवार कर लिया। हम अपने-अपने धर्म-ग्रन्थों को बिना सोचे-समझे सत्य मानें और दूसरे धर्म-ग्रन्थों को बिना पढ़े ही असत्य मानें, ऐसा भावावेश हमारे भीतर कूट-कूट कर भरा गया है। हमें धर्म से कोई लेना-देना नहीं। हमारे लिए सम्प्रदाय ही प्रमुख है । बुरे से बुरा अधार्मिक दुराचारी व्यक्ति भी यदि हमारे सम्प्रदाय में है तो भला, अन्यथा अच्छे से अच्छा धार्मिक सदाचारी व्यक्ति भी पराए सम्प्रदाय में है तो हमें आँखों नहीं सुहाता ।
हम अपने माँ-बाप से विरासत में जैसे अपनी शक्ल-सूरत पाते हैं, बोलीभाषा पाते हैं, वैसे ही अंधविश्वास व अंध मान्यताएँ पाते हैं। अंध भक्ति का भावावेश पाते हैं। साम्प्रदायिकता का वह आतंक प्रलोभन भी पाते हैं जो हमारी अंधमान्यताओं की जकड़ को मजबूत बनाता है। परन्तु साथ-साथ मानवीय बौद्धिक सम्पदा के बीज भी पाते हैं। हम अपने मां-बाप से प्राप्त हुई शक्ल-सूरतें नहीं बदल सकते, पर इन मान्यताओं को अपनी बुद्धि के प्रयोग से और अपनी अनुभूतियों के बल पर अवश्य बदल सकते हैं। जितनी काम की हों उन्हें रख सकते हैं, जो निकम्मी हों उखाड़ फेंक सकते हैं । अक्ल का बिल्कुल इस्तेमाल न करें, स्वानुभूतियों का जरा भी अभ्यास न करें तो बिना समझे ही उन अंध मान्यताओं को अपनी शक्ल व सूरत की तरह वैसी ही बनाए रखने की हर चन्द कोशिश करते हैं।
सत्य धर्म के अनुसंधान में अंध मान्यताओं के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता । जहाँ-जहाँ भी अंधमान्यताओं का आग्रह है, वहाँ धर्म नहीं सम्प्रदाय है, और समझना चाहिए कि कोई हमें स्वार्थवश या अज्ञानवश अपने बाड़े में बाँधे रखना चाहता है। सत्य और धर्म के लिए विचार, विमर्श और वाणी का स्वातन्त्र्य नितान्त आवश्यक है । प्रत्यक्ष अनुभूतियों का अभ्यास उससे भी