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क्या पड़ा है 'नाम' में
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पापक वापस लौट आया। अब नाम के प्रति उसका आकर्षण या विकर्षण दूर हो चुका था। बात समझ में आ गई। क्या पड़ा है नाम में ? जीवक भी मरते हैं और अजीवक भी । धनपाली भी दरिद्र होती है और अधनपाली भी। पंथक भी राह भूलते हैं और अपंथक भी। सचमुच नाम की थोथी महत्ता निरर्थक ही है । जनम का अन्धा नाम नयनसुख ! जनम का दुखिया नाम सदासुख! रहे नाम पापक, मेरा क्या बिगड़ता है ? मैं अपना कर्म सुधारूंगा । कर्म ही प्रमुख है । कर्म ही प्रधान है। __जो बात व्यक्ति के नाम पर लागू होती है, वही सम्प्रदाय के नाम पर भी ? न बौद्ध सम्प्रदाय के सभी लोग बोधिसम्पन्न होते हैं और न जैन सम्प्रदाय के सभी आत्मजित् । न ब्राह्मण सम्प्रदाय के सभी ब्रह्मविहारी होते हैं और न इस्लाम के सभी समर्पित और शाँत । जैसे हर व्यक्ति में अच्छाई-बुराई दोनों होती है, वैसे हर सम्प्रदाय में अच्छे बुरे लोग होते हैं। किसी भी सम्प्रदाय के न सभी लोग अच्छे हो सकते हैं, न सभी बुरे । परन्तु साम्प्रदायिक आसक्ति के कारण हम अपने सम्प्रदाय के हर व्यक्ति को सज्जन और पराए के हर व्यक्ति को दुर्जन मानने लगते हैं । बौद्ध, जैन, ईसाई या मुस्लिम कहलाने मात्र से कोई व्यक्ति न सज्जन बन जाता है, न दुर्जन । बौद्ध कहलाने वाला व्यक्ति परम पुण्यवान भी हो सकता है और नितान्त पापी भी । यह बात सभी सम्प्रदायों पर समान रूप से लागू होती है। जैसे व्यक्ति की पहचान के लिए उसे कोई नाम दिया जाता है, वैसे ही किसी समुदाय की पहचान के लिए भी। इन नामों से गुणों का कोई सम्बन्ध नहीं । तेल भरे पीपे पर शुद्ध घी का लेबल लगा देने पर भी तेल, तेल ही रहता है, शुद्ध घी नहीं बन जाता । किसी सुन्दर व्यक्ति का नाम कुरूप रख दें तो वह कुरूप और किसी कुरूप को सुन्दर कहने लगें तो वह सुन्दर नहीं बन जाता। फूल को कांटा अथवा कांटे को फूल कहने लगें तो भी फूल-फूल ही रहता है, कांटा-कांटा ही। ___ कोई व्यक्ति हो तो रंक, पर नाम हो राजन्य । ऐसा व्यक्ति जब तक इस तथ्य को समझता है कि यह राजन्य नाम केवल सम्बोधन हित है, वस्तुतः मैं रंक हूँ, तब तक वह होश में है। परन्तु जिस दिन वह इस नाम का दम्भ सिर पर चढ़ा कर, रंक होते हुए भी, अपने आपको राव राजा मानने और अन्य सभी को हेय दृष्टि से देखने लगता है तो वह प्रमत्त व्यक्ति, लोगों के उपहास