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धर्म : जीवन जीने की कला
एक ओर अपने मिथ्या स्वार्थों की सुरक्षा के लिए भयभीत और आतंकित होकर किसी दुर्बल व्यक्ति को कोहनी मारकर नीचे गिराने और उसे पाँव तले रौंदने की क्रूरता और दूसरी ओर योग-क्षेम से परिपूर्ण होकर निर्भय रहते हुए सब के हित-सुख में ही अपना हित-सुख देखने की विशाल हृदयता, इन दोनों के बीच की सारी स्थितियाँ समता धर्म के विकास की ही सीढ़ियाँ हैं।
समता पुष्ट होती है तो सामंजस्य आता है, समन्वय आता है, स्नेहसौहार्द्र आता है, सहिष्णुता आती है । सहयोग, सद्भाव, सहकारिता सहजभाव से ही आ जाते हैं । इनके लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता । ये सब नहीं आ रहे हैं तो अवश्य कुछ कमी है । अभी जीवन में सही विपश्यना, सही समता नहीं आयी है। समता की साधना के नाम पर कोई छलना, कोई माया या कोई धोखा आया होगा। दार्शनिक बुद्धिविलास का एक और चमकीला लेप आया होगा । अवश्य ही अन्तर्मन अभी विषमता से भरा हुआ है। अपने आपको इसी कसौटी से कस कर जाँचते रहना चाहिए।
सचमुच समता पुष्ट होगी तो अपनी हानि करके भी औरों का हित-साधन ही होगा और यह सहजभाव से होगा। दिए की बत्ती स्वयं जलती है पर बदले में लोगों को प्रकाश ही देती है । धूपबत्ती स्वयं जलती है पर बदले में सबको सुवास ही देती है । चन्दन की लकड़ी स्वयं कटती है पर बदले में सबके लिए सुरभि ही बिखेरती है । फलवाला वृक्ष पत्थर की मार स्वयं सहता है पर बदले में सबको फल ही देता है। और यह सब कुछ सहजभाव से होता है। समता सहज हो जाय तो सबके मंगल का स्रोत खुल जाय ।
ऐसे सर्वमंगलमय समता-धर्म में स्थापित होने के लिए अभ्यास करें !