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८. समता धर्म
समता धर्म है। विषमता अधर्म । समता अनासक्ति है। विषमता आसक्ति । जहाँ आसक्ति है वहाँ दुःख है। जहाँ अनासक्ति है वहीं सच्चा सुख, सच्ची शान्ति है।
विपश्यना साधना द्वारा हम देखते हैं कि शरीर पर आधारित इस चित्तधारा में विविध कारणों से समय-समय पर सुखद और दुखद दोनों ही प्रकार की संवेदनाएँ प्रकट होती रहती हैं। सुखद संवेदना हमें प्रिय लगती है और उसके प्रति राग पैदा होता है। परिणामतः उसे बनाये रखने के लिए आतुर रहते हैं । वह छूट न जाय, इसलिए आशंकित-आतंकित हो उठते हैं। असुरक्षितता की बेचैनी महसूस करने लगते हैं। परन्तु प्रकृति के परिवर्तनशील नियमों के कारण यह सुखद संवेदना नष्ट होती ही है । और जब दुखद संवेदना प्रकट होती है तो उसके प्रति द्वेष जागता है। उसे दूर करने के लिए आतुर हो उठते हैं । क्या यह कभी दूर नहीं होगी? इस भय-आशंका से आतंकित हो उठते हैं। फिर असुरक्षा की बेचैनी में जकड़ जाते हैं। दोनों ही अवस्था में अशांत, बेचैन रहते हैं। राग और द्वेष से आसक्ति जागती है। असुरक्षा की भावना जागती है। मन अपना सन्तुलन खो बैठता है। यही विषमता है। सुखद-दुखद स्थितियों के रहते भी मन राग-द्वेष से विहीन रहे तभी अनासक्त रहता है। सुरक्षितता महसूस करता है। सन्तुलन नहीं खोता। शांत रहता है।
सुखद-दुखद स्थिति के प्रति पूर्ण संवेदनशील और जागरूक रहकर भी अविचलित रहना ही समता है। समता चट्टानी जड़ता नहीं है। मरघट की शान्ति नहीं है । जहाँ चित्त को उत्तेजित करने वाले आलंबन-उद्दीपन ही न हों,