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धर्म न मिथ्या रूढ़ियां, धर्म न मिथ्याचार । धर्म न मिथ्या मान्यता, धर्म सत्य का सार ।
जटा-जूट माला तिलक, हुए शीष के भार । भेष बदल कर क्या मिला ? अपना चित्त सुधार ।।
कर्मकांड न धर्म है, धर्म न बाह्याचार । धर्म चित्त की शुद्धता, सेवा, करुणा, प्यार ।
गुण तो धारण न किया, रहे नवाते माथ। बहा धर्म रस, रह गया फूटा बर्तन हाथ ।।
अन्तर सद्गुण
में जागे धरम, दुर्गुण से, सद्भाव से, रहे
होवें दूर। हृदय भरपूर ॥
भीतर बाहर स्वच्छ हों, करें स्वच्छ व्यवहार । सत्य, प्रेम, करुणा जगे, यही धर्म का सार ।