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धर्म क्या है ?
बचकर सत्कर्मों में लगते हैं तो केवल अपना ही भला नहीं करते, बल्कि औरों का भी भला साधते हैं।
___जीवनमूल्यों के लिए ही तो धर्मसाधना है। यदि धर्म के अभ्यास से जीवनमूल्य ऊँचे नहीं उठते, हमारा लोक-व्यवहार नहीं सुधरता, हम अपने लिए तथा औरों के लिए मंगलमय जीवन नहीं जी सकते तो ऐसा धर्म हमारे किस काम का ? किसी के भी किस काम का ? धर्म इसलिए है कि हमारे पारस्परिक सम्बन्ध सुधरें। हममें व्यवहार कौशल्य आए। परिवार, समाज, जाति, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय सारे पारस्परिक सम्बन्ध व्यक्ति-व्यक्ति के सम्बन्धों पर ही निर्भर होते हैं । अतः शुद्ध धर्म यही है कि प्रत्येक व्यक्ति यहीं, इसी जीवन में औरों के साथ अपना व्यवहार सम्बन्ध सुधारे । इसी जीवन में सुख-शान्ति से जीने के लिए धर्म है । मृत्यु के बाद बादलों के ऊपर किसी अज्ञात स्वर्ग का जीवन जीने के लिए नहीं । मृत्यु के बाद पृथ्वी के नीचे किसी अनजान नरक से बचने के लिए नहीं । बल्कि हमारे ही भीतर समाए हुए स्वर्ग का सुख भोगने के लिए, हमारे अपने ही भीतर समयसमय पर यह जो नारकीय अग्नि जल उठती है, उसे शान्त करने के लिए; उससे बचने के लिए । धर्म सांदृष्टिक है, प्रत्यक्ष है। इसी जीवन, इसी लोक के लिए है। वर्तमान के लिए है। जिसने अपना वर्तमान सुधार लिया, उसे भविष्य की चिन्ता करने की जरूरत नहीं । उसका भविष्य स्वतः सुधर जाता है । जिसने लोक सुधार लिया, उसे परलोक की चिन्ता नहीं। उसका परलोक स्वतः सुधर जाता है । जो अपना वर्तमान नहीं सुधार सका, अपना इहलोक नहीं सुधार सका और केवल भविष्य की ओर आशा लगाए, परलोक की ओर टकटकी लगाए बैठा है, वह अपने आपको धोखा देता है । अपने वास्तविक मंगल से वंचित रहता है । शुद्ध धर्म से दूर रहता है । धर्म अकालिक होता है । यानी अभी इसी जीवन में फल देने वाला होता है। धर्म के नाम पर कोई अनुष्ठान करें और उसका लाभ यहाँ न मिले, विकारविहीन चित्त की निर्मलता का वास्तविक सुख यहीं इसी जीवन में न मिले, तो समझना चाहिए किसी धोखे में उलझ रहे हैं। शुद्ध धर्म से वंचित हो रहे हैं। धर्म सब के लिए इसी जीवन को सुख-शान्तिमय बनाने हेतु है । आंखों के परे किसी सुदूर भविष्य की निरर्थक चिन्ता से मुक्त होने के लिए है । यही