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धर्म : जीवन जीने की कला
इस नियम के अनुसार जब-जब हमारा मन द्वेष, दौर्मनस्य, क्रोध, ईर्ष्या, भय आदि से आक्रांत हो उठता है, तब-तब हम व्याकुल हो जाते हैं । दुख संतापित होकर सुख से वंचित हो जाते हैं । जब-जब हमारा मन ऐसे विकारों से विकृत नहीं रहता, तब-तब हम व्याकुलता से मुक्त रहते हैं | दुखसंतापित होने से बचे रहते हैं । अपनी आन्तरिक सुख-शांति के मालिक बने रहते हैं ।
जो विकारों से मुक्त रहना सिखाती है वही जीवन जीने की सही कला है । वही शुद्ध धर्म है । शुद्ध धर्म का स्वरूप बड़ा ही मंगलमय और कल्याणप्रद है । हम जब-जब विकार-विमुक्त होकर निर्मल चित्त से आचरण करते हैं, तब-तब स्वयं तो वास्तविक सुख-शांति भोगते ही हैं औरों की सुखशांति का भी कारण बनते हैं । इसीप्रकार जब-जब विकारग्रस्त होकर मलिन चित्तजन्य आचरण करते हैं, तब-तब स्वयं तो संतापित होते ही हैं औरों के संताप का भी कारण बनते हैं । समाज की शांति भंग करते हैं ।
क्रोध, लोभ, वासना, भय, मात्सर्य, ईर्ष्या, अहंकार आदि मनोविकारों के शिकार बन हम हत्या, चोरी, व्यभिचार, झूठ, छल-कपट, चुगली, परनिन्दा, निरर्थक बकवास करते हैं, कडुवा - कठोर बोलते हैं; और जब- जब ऐसा करते हैं तब-तब आत्म तथा पर- संताप का कारण बनते हैं । मनोविकारों के बिना कोई भी शारीरिक या वाचिक दुष्कर्म सम्पन्न हो नहीं सकता । परन्तु यह अनिवार्य नहीं हैं कि मनोविकारों के उत्पन्न होने पर हम कायिक और वाचिक दुष्कर्म करें ही । बहुधा प्रबल मनोविकारों के उत्पन्न होने के बावजूद भी आत्मदमन द्वारा हम ऐसे कायिक, वाचिक दुष्कर्मों से बच जाते हैं । इससे प्रत्यक्षतः औरों की हानि नहीं कर पाते । परन्तु फिर भी दूषित मनोविकारों से आक्रांत होकर यदि मन ही मन व्याकुल रहते हैं तो मानसिक दुष्कर्म तो करते ही हैं । इससे अपनी शांति खोते हैं; परोक्षत: औरों की शांति भी भंग करते हैं । हमारे मन की दूषित तरंगें आस-पास के वातावरण को प्रभावित और दूषित किए बिना नहीं रह सकतीं ।
जब-जब हमारा मन विकार-विमुक्त और निर्मल होता है, तब-तब स्वाभाविक ही वह स्नेह और सद्भाव से, मैत्री और करुणा से भर उठता है । उस समय हम स्वयं तो सुख-शान्ति का अनुभव करते ही हैं, परोक्षत: