________________
धर्म : जीवन जीने की कला
तार देने पर तत्पर हो जाता है । ऐसी आसक्ति है उसे अपने नाम से। और ऐसी ही आसक्ति है उसे अपने संप्रदाय से ! जिस-जिस संप्रदाय का भगवान है, उस-उस संप्रदाय के व्यक्ति का पक्ष लेता है और अलग-अलग संप्रदायों के हमने अलग-अलग पक्षपाती भगवान खड़े कर लिए। अरे, कोई सीमा है हमारे भोलेपन की भी? क्या सचमुच इस विशाल विश्व की व्यवस्था ऐसे किसी शासक या शासकों के हाथ में है जो पक्षपाती हैं, दंभी हैं, निरंकुश हैं, कानूनकायदों को, धर्म-विधान को ठुकराकर मनमानी करने वाले हैं ? दुर्गुण ही दुर्गुण के भण्डार हैं।
यदि मान्यता ही करनी थी तो ऐसे दुर्गुणी की जगह किसी सद्गुण संपन्न देवता की करते ताकि उसके गुणों का चिंतन कर, उससे प्रेरणा पाकर स्वयं सर्व-गुण सम्पन्न होने में तो लगते। कल्याण तो सधता । परन्तु अपने भोलेपन में हम अपना ही अमंगल साधने लगे। चित्त विशुद्धि से ही दुख-विमुक्ति है, इस विधान को स्वीकारते हुए भी चित्त विशुद्ध हो, न हो, इस विधान के परे किसी निरंकुश विधायक को प्रशंसाओं से प्रसन्न करने के भोलेपन में जुट गए।
धर्म-दर्शन का अभ्यास हमें ऐसी भूलों से बाहर निकालता है। दुख का कारण चित्त के दूषण हैं और चित्त के इन दूषणों से विमुक्त हो जाना ही दुखविमुक्ति है। निःसर्ग का यह अटल नियम विधान जितना स्पष्ट होता चला जाय, उतना चित्त-विशुद्धि को ही एकमात्र लक्ष्य मानकर हम धर्मपथ पर आरूढ़ हो जायँ। फिर तो विधान पालन ही हमारे लिए प्रमुख हो जाय। और सब गौण । विधान ही विधायक हो जाय, नियम ही नियामक हो जाय, सत्य ही नारायण हो जाय, धर्म ही ईश्वर हो जाय। विधान, नियम, सत्य, धर्म को ठुकराकर इनसे अलग किसी नारायण को प्रसन्न करने की बात मन में आए ही नहीं । धर्म छूटने में अमंगल ही अमंगल सूझे और धर्म-धारण में मंगल ही मंगल । ____सत्य को ही ईश्वर मानकर उसके प्रति सविवेक श्रद्धा रखते हुए जब हम धर्म-दर्शन का अभ्यास करते हैं तो सचमुच जितना-जितना धर्मदर्शन याने सत्यदर्शन होता है, उतने-उतने दुःखविमुक्त हो जाते हैं। उस अवस्था में अनंत प्रकृति की सूक्ष्मतर सच्चाइयों के साथ समरस होने लगते हैं और प्रकृति की यह सच्चाई अपने ही नियमों से बंधी होने के कारण स्वतः हमारी रक्षा करने लगती है। धारण करें तो धर्म स्वतः हमारी रक्षा करता है। इसके लिए उसकी अथवा किसी की भी खुशामद नहीं करनी पड़ती। यह धर्म नियामता