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प्रशंसनीय है । उनके अति परिश्रम का ही यह परिणाम था कि वे बीमार हुए उन्हें शल्य चिकित्सा करानी पड़ी और कुछ विश्राम लेना आवश्यक हो गया । इस बीमारी के बाद विश्राम के समय उन्होंने इन लेखों को जो विपश्यना पत्रिका में आये थे और कुछ नये लिखकर दिए, उनका संग्रह प्रकाशित हो रहा है । इन लेखों के विषय में हम अधिक न कह कर इतना ही कहना उचित समझते हैं कि यह लेख कल्पना से लिखे हुए नहीं हैं किन्तु अपने गुरुजी सयाजी ऊ बा खिन से पाये अपने अनुभव का सार है, जो उन्होंने विपश्यना की साधना करके प्राप्त किया है । पाठकों को इस बात की प्रतीति लेखों को पढ़ने से हो जावेगी । इसका नाम भी यथार्थ है । 'धर्म जीवन जीने की कला है ।' वह चर्चा का विषय या बुद्धिविलास या मनोरंजन की वस्तु नहीं है । किन्तु जीवन मे अपनाने योग्य है । जिससे जीवन सुखी और सफल हो सकता है ।
हम कल्याण मित्र गोयनकाजी के अत्यन्त अनुग्रहित हैं, जिन्होंने यह पुस्तक तैयार कर प्रकाशित करने की अनुमति दी ।
आशा है श्री गोयन्काजी की इस कृति का साधनोत्सुक पाठक उचित उपयोग करेंगे |
- रिषभदास रांका