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वुद्ध
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विक ही हैं । गुरु में निष्ठा, साधन में निष्टा और गुरुभाइयों में प्रीति अथवा संत-समागम । इस त्रिपुटी के बिना किसी पुरूष की उन्नति नहीं होती। बौद्ध शरण-त्रय के पीछे यही भावना रही है। स्वामीनारायण सम्प्रदाय में इन तीन भावनाओ को निश्चय (सहजानंद स्वामी में निष्ठा), नियम (सम्प्रदाय के नियमो का पालन) और पक्ष (सत्संगियो के प्रति बंधु-भाव ) इन नामों से संबोधित किया है।
बुद्धं शरणं गच्छामि-इम शरण की यथार्थता तो वास्तविक रूप में तब ही थी जब बुद्ध प्रत्यक्ष थे। अपने गुरुकी पूर्णता के विषय में बढ़ श्रद्धा न हो तो शिष्य ऊँचा उठ नहीं सकता। जब तक ब्रह्मनिष्ठ गुरु की प्राप्ति न हो तब तक ही मुमुक्षु को किसी देवादिक के प्रति या भूतकालीन अवतारो की भक्ति मे रस आता है। गुरुप्राप्ति के बाद गुरु ही परम दैवत् परमेश्वर बनते हैं। वेद धर्मों में अर्थात् अनुभव अथवा ज्ञान के आधार पर रच हुए समस्त धर्मों में गुरु को ही सर्वश्रेष्ठ दैवत माना है।
लेकिन जब-जब कोई गुरु सम्प्रदाय स्थापित कर जाते हैं तब प्रत्यक्ष गुरु की उपासना में से परोक्ष अवतार या देव की उपासना में वे सम्प्रदाय उतर पड़ते हैं। समय बीतने पर आद्यस्थापक परमेश्वर का स्थान प्राप्त करता है और वह अपना तारक है इस श्रद्धा की नींव पर सम्प्रदाय की रचना होती है। उसके बाद इस प्रथम शरण की भावना भिन्न ही स्वरूप धारण करती है।
ये तीन शरण आध्यात्मिक मार्ग मे ही उपकारी हैं यह नहीं मानना चाहिए। कोई भी संस्था या प्रवृत्ति नेता या आचार्य के प्रति