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तपश्चर्या
८. अन्नग्रहण:
सिद्धार्थ ने देहदमन का पूरा अनुभव करनेपर देखा कि केवल देहदमन से कोई लाभ नहीं । यदि सत्य का मार्ग खोजना हो तो वह शरीर की शक्ति का नाश करके नहीं मिल सकेगा, ऐसा उसे लगा। इसलिए उसने फिर से अन्नग्रहण करना शुरू कर दिया। सिद्धार्थ की उग्र तपश्चर्या से कितने ही तपस्वी उसके शिष्य के समान हो गए थे। सिद्धार्थ को अन्नग्रहण करते देख बुद्ध के प्रति उनमे निरादर पैदा हुआ। सिद्धार्थ योगभ्रष्ट हो गया, मोक्प के लिए अयोग्य हो गया, आदि विचार कर उन्होने उसका त्याग कर दिया। लेकिन सिद्धार्थ मे लोगो मे केवल अच्छा कहलाने की लालसा नही थी। उसे तो सत्य और सुख की शोध करनी थी। इस बारे में उसके संवध में दूसरों के अभिप्राय बदलेंगे, इस विचार से उसे जो मार्ग भूल भरा लगा उससे वह कैसे चिपट सकता था ? ' ९. बोधप्राप्ति
इस प्रकार सिद्धार्थ को राज्य छोड़े छः वर्ष बीत गए। विषयों की इच्छा, कामादि विकार, खाने-पीने की तृष्णा, आलस, कुशंका, अभिमान, कीर्ति की लालसा, आत्मस्तुति, परनिंदा आदि अनेक प्रकार की चित्त की आसुरी वृत्तियों के साथ उसे इन वर्षों में झगड़ना पड़ा। ऐसे विकार ही मनुष्य के बड़े-से-बड़े शत्रु हैं इसका उसे पूरा विश्वास हो गया। अन्त में इन सब चिकारो को जीत कर उसने चित्त की अत्यंत शुद्धि की। जब चित्त की परिपूर्ण शुद्धि हो गई तब उसके हृदय में ज्ञान का प्रकाश हुआ। जन्म और मृत्यु क्या है ? सुख और दुःख क्या है ? दुःख का नाश होता है या