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भाषण
का डर पैदा करे, जिससे वेहतर यह है कि कोई उद्योगी और ईमानदार कारीगर उसका उपयोग करे और हमें जब जरूरत हो तव लौटा देने का वादा करे। यह हमारे लाभ की बात होगी। रुपये की रखवाली के लिये वह थोड़ा-सा किराया मांगे याने सोलह आने की जगह पन्द्रह या साढ़े पन्द्रह आने ही लौटाने का वादा करे तो भी अनुचित नही कहा जा सकता । किसी जमाने में ऐसा होता भी था । बड़े-बड़े सराफों के यहाँ कोई अमानत रकम रक्खे, तो उसका व्याज देनेके बदले रखवाली के लिए वे वट्टा लेते थे। आज भी कई संस्थाएँ छोटी-छोटी अमानतों पर व्याज नहीं देती और गहने-बरतन सम्हालने के लिए मेहनताना लेती हैं। कारण यह है कि पैसे, जेवर वगैरह कीमती मानी जानेवाली चीजें यदि भैजाकर काम में न लायी जायँ और केवल सम्हालनी ही पड़ें तो वह एक जञ्जाल ही समझा जायगा। ऐसा जञ्जाल स्वीकार करनेवाला अपना मेहनताना ले ले, तो कोई ताज्जुब नहीं है। परंतु आज तो मार्थिक रचना की विचित्र कल्पनाओं के कारण जो व्यक्ति हमारे पूँजी की हिफाजत करता है और उसका उपयोग करता है, इम से किराया मांगने के बदले मानो उसका उपकार कर रहे हैं, ऐसी भावना से हमें व्याज देता है। अगर सारा दिन मेहनत करके बह रूपये के माल में अठारह आने की चीज बना ले, तो ऊपर के आनों में से हमें घर बैठे कुछ हिस्सा दे देता है। और हलके-हलके यह व्याज इस तरह बढ़ता जाता है कि मेहनत-मशक्कत करनेवाले
को तो एक जून का भोजन भी नही मिल सकता, लेकिन हमें ___ आलीशान मकान, बँगला और शहर के सारे शौक प्राप्त होते हैं।