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बुद्ध और महावीर
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यह मान्यता सर्वप्रथम किसने उत्पन्न की, यह जानना कठिन है लेकिन अवतारचाद तथा बुद्ध-तीर्थंकरवाद में एक भेद है। बुद्ध य तीर्थंकर के तरीके से ख्याति प्राप्त करनेवाले पुरुष जन्म से ही पूरा ईश्वर या मुक्त होते हैं, यह नहीं माना गया। अनेक जन्मो रे साधना करते-करते आया हुआ जीव अन्त में पूर्णता की चरर सीढ़ी पर पहुँच जाता है। और जिस जन्म में इस सीढ़ी पर पहुँचता है, उस जन्म में वह बुद्धत्वं या तीर्थकरत्व को पाता है अवतार में जीवपने की या साधक अवस्था की मान्यता नहीं है यह तो पहले से ही ईश्वर या मुक्त है और किसी कार्य को करने में लिए इरादा-पूर्वक जन्म लेता है, ऐसी कल्पना है। इससे, यह जी नहीं माना जाता, मनुष्य नही माना-जाता। यह कल्पना भ्रम उत्पा करनेवाली साबित हुई है और इसका चेप थोड़े बहत अंशो में बौद्ध और जैन-धर्मों को भी लगा है। इस तरह बुद्ध और महावी के अनुयायी भी वाद तथा परोक्ष देवों की पूजा में फंस गए हैं औ जैसे संसार चल रहा था. वैसा ही चल रहा है।*,
* यह सब सर्व प्रकार की भक्ति के प्रति आदर कम कर के भांशय से नहीं लिखा गया है। अपने जैसे सामान्य मनुष्यो। लिए परावलम्बन से स्वावलंबन की ओर, असत्य से सत्य की ओर अज्ञान से ज्ञान की ओर जाने का क्रममार्ग ही हो सकता है; लेकिन ध्येय स्वावलम्बन, सत्य और ज्ञान तक पहुँचने का होना चाहि • और भक्ति का उद्देश्य चित्त-शुद्धि है, यह नहीं भूलना चाहिए।
(शेष पृष्ठ १०९ पर देखें
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