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महावीर
९. स्याद्वाद की दृष्टियाँ:
प्रत्येक विषय पर अनेक दृष्टि से विचार किया जा सकता है। सम्भव है कि वह एक दृष्टि से एक तरह का दिखाई दे
और दूसरी दृष्टि से दूसरी तरह का और अिसटिए प्रत्येक सुज मनुष्य का यह कर्तव्य है कि प्रत्येक विषय की पूर्णरूपेण परीक्षा करे और प्रत्येक दिशा से उसकी मर्यादा का पता लगाए । किसी एक ही दृष्टि से खिंच कर वही एक मात्र सच्ची दृष्टि है, ऐसा आग्रह रखना संतुलन-वृष्टि की अपरिपक्वता प्रकट करता है। दूसरे पक्ष की दृष्टि को समझने का प्रयत्न करना और उम पक्ष की प्टि का खंडन करने का हठ रखने की अपेक्षा किस दृष्टि से उसका कहना सच हो सकता है, यह शोधने का प्रयत्न करना सक्षेप में यही स्याद्वाद है, ऐसा मैं समझता हूँ, भ्याटु' अर्थात् ऐसा भी हो सकता है। इस विचार को अनुमोदन करनेवाला मत स्याद्वाद है । सत्यशोधक मे ऐसी बृत्ति का होना आवश्यक है।
१० स्याद्वाद की मर्यादा :
स्थाद्वाद का अर्थ यह नहीं कि मनुष्य को किसी भी विषय के सम्बन्ध में किसी भी निश्चय पर पहुँचना ही नहीं, बल्कि वह तो
१-इसके विशेष विवेचन के लिए देखिए श्री नर्मदाशंकर देवशंकर
मेहता का 'दर्शनो के अभ्यास में रखने योग्य मध्यस्थता' । सम्बन्धी लेख (प्रस्थान, पु. द. पृष्ठ ३३१-३३८)