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वर्गीकरण से " षडदर्शन" कहा जाता है। यथा इसमें चार्वाक, जैन, (बौद्ध) वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार, माध्यमिक दर्शनों को रखा जाता है।
प्राचीन भारतीय दार्शनिक साहित्य में आस्तिक और नास्तिक का एक अन्य अर्थ भी लोक और परलोक को लेकर प्राप्त होता है। इसके अनुसार इहलोक के साथ परलोक में विश्वास करने वाले दर्शन को आस्तिक दर्शन कहते हैं। तथा जो परलोक में न विश्वास करके केवल इहलोक में विश्वास करता है, नास्तिक दर्शन है। इस प्रकार इहलोक या सादृश्य जगत को स्वीकार करने वाला "लोकायत दर्शन" है जिसे " चार्वाक दर्शन" भी कहते हैं। चार्वाक दर्शन अपनी भौतिकवादिता के कारण शेष सभी दर्शनों से अलग पड़ जाता है। इसके अतिरिक्त इस अर्थ में अन्य सभी आठ दर्शन आस्तिक हैं।
एक अन्य मत से पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाला ही आस्तिक कहा गया है और इसके विपरीत नास्तिक कहा गया है। किन्तु इसको स्वीकार करने में एक कठिनाई यह सामने आती है कि जैन और बौद्ध पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं फिर भी उन्हें नास्तिक के अन्तर्गत रखा गया है । अतः पुनर्जन्म में विश्वास ही आस्तिक-नास्तिक का निर्णायक है, नहीं कहा जा सकता है।
एक अन्य अर्थ में ईश्वरवादी दृष्टिकोण से भी आस्तिक-नास्तिक का भेद किया गया है । इस दृष्टिकोण को स्वीकार करने वालों के अनुसार ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने वाला आस्तिक है और ईश्वर की सत्ता में विश्वास न करने वाला नास्तिक है। इस दृष्टि से चार्वाक, जैन, बौद्ध के साथ सांख्य एवं मीमांसा भी नास्तिक दर्शन की श्रेणी में आ जाते हैं क्योंकि ये भी अपने को मुक्त कंठ से निरीश्वरवादी स्वीकार करते हैं और इसके अतिरिक्त योग, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त ईश्वरवादी होने के कारण आस्तिक दर्शन के अन्तर्गत आते हैं । किन्तु इस तथ्य को उल्लेखित करना अतिमहत्वपूर्ण है कि इन आस्तिक-नास्तिक पद के विभिन्न अर्थों में प्रथम अर्थ - (वेद प्रामाण्य में विश्वास) सर्वाधिक प्रचलित एवं महत्वपूर्ण है और इस दृष्टि से चार्वाक, जैन,
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