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आकर्षित होते है कि इसके निर्देशित मार्ग पर चल कर सदा के लिये अपने को दुःखादिद्वेषों से युक्त कर सकेगें। यदि संसार में ऐसा कोई दर्शन है परमार्थिक दृष्टिकोण से ही सही दोषो को नितान्त असत् घोषित करता है तो यह एक मात्र वेदान्त दर्शन ही है इसमें दोषों की भी व्यवहारिक सत्ता मानी गई है। इसमें दोषों की भी व्यवहारिक सत्ता मानी गई। और इसमें धार्मिक तथा नैतिक जीवन पालन करें का बड़ा महत्त्व बताया गया है। नैतिकता का पालन किये बिना परमसत् का ज्ञान संभव नहीं है और उसके बिना दोषों से भी सर्वथा मुक्ति असंभव है। मैक्समूलर ने कहा है कि "शङकर के दर्शन में समस्त प्रपञ्च का निषेध हो जाता है। उनके अनुसार विशेष नितांत अकिंचित है 'तत्त्वमसि इसका मूलमंत्र है जिसका समान्य अर्थ ब्रह्म के एकत्त्व में जीव और जगत का विलय है तथा उस ब्रह्म का 'नेति-नेति' से ही निर्वचन संभव है।
इस प्रकार आचार्य शङ्कर का ब्रह्मसूत्र शाङ्कर भाष्य एक क्रान्तिकारी ग्रन्थ है। इसके खण्डन में रामानुज, भास्कर, मध्व आदि ने ब्रह्मसूत्र पर अपने-अपने भाष्य लिखे हैं इससे वेदान्त सम्प्रदाय में अद्वैत वेदान्त के खण्डन की परम्परा विकसित हुई है। किन्तु इस परम्परा के उत्तर में शारीरक भाष्य के समर्थन में भी अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं। जिनमें पद्मपाद-वाचस्पति मिश्र, सर्वज्ञात्मा, चित्सुखाचार्य, आनन्दगिरि, गोविन्दानन्द, अनुभूतिस्वरूपाचार्य आदि की टीकाओं का प्रभाव दार्शनिक जगत पर बहुत पड़ा है। निःसंदेह ब्रह्मसूत्र एवं शारीरक भाष्य एक अत्यन्त मौलिक कृति है।
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