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मिश्र स प्रभावित होकर वाचस्पति मिश्र ने दृष्टि सृष्टिवाद का विकास किया। वाचस्पति मिश्र के समय में ही अनेक जीवाश्रित भिन्नावरण शक्तिक एक अविद्यावाद का प्रचलन हो चुका था जिसके अनुसार जीव अनेक है और वे ही अविद्या के आश्रय है।
वाचस्पति मिश्र ने इस प्रसंग में अनेक जीवाश्रित अनेक-अविद्यावाद को अग्रसर किया। ये अविद्या के दो रुप मानते है- (१) मूला अविद्या- जो वासनामय है और कारण रूप है और (२) तूला अविद्या जो कार्य प्रपञ्च रुप है। दोनों प्रकार की अविद्या अनेक है अर्थात् प्रतिजीव भिन्न है। परवर्ती अद्वैत वेदान्तियों ने वाचस्पति के इस मत पर न्याय का प्रभाव दिखलाया है क्योंकि वेदान्त में सामान्य' को स्वीकार नहीं किया जाता है।
___ अमलानन्द (१३वीं शताब्दी) भी दृष्टि सृष्टिवाद सिद्धान्त के समर्थक है। इस सिद्धान्त के अनुसार समस्त प्रपञ्च शून्य ब्रह्म की अवगति के उपाय के रूप में ही श्रुतियों में सृष्टि और प्रलय का विवेचन किया गया है। किन्तु ध्यातव्य है कि श्रुतियां में सृष्टि का प्रतिपादन परमार्थिक रूप से नहीं किया गया है। जहां आरोप न्याय के द्वारा यदि प्रतिपादन हुआ है तो वहां अपवाद न्याय के द्वारा उसका खण्डन भी हुआ है। इस प्रकार दृष्टि सृष्टिवाद सृष्टि को तात्विक न मानकर दृष्टिकालिक ही मानता है।
अन्ततः जीवाश्रित अविद्या का सिद्धान्त प्रकाशानन्द के दर्शन में एक जीवाश्रित एक अविद्यावाद का रूप लिया यह वेदान्त सिद्धान्त मुक्तावली के लेखक है। उन्होंने एकजीववाद और दृष्टि सृष्टिवाद को एक साथ जोड़ दिया। उनका दृष्टि सृष्टिवाद दृष्टि ही सृष्टि है ऐसा मानता है। इसके पहले के दृष्टिसृष्टिवाद यह मानते थे कि सृष्टि-दृष्टि सम-सामयिक है और दृष्टि ही सृष्टि नहीं है इस प्रकार वाचस्पति मिश्र एक प्रत्ययवादी दार्शनिक सिद्ध होते है। किन्तु वे बर्कले के “सत्ता ही दृश्यता है" (दृष्टि ही सत्ता है) को नहीं मानते थे किन्तु प्रकाशानन्द का सिद्धान्त बर्कले के सिद्धान्त के
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