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विलक्षण है। अविद्या का विषय ब्रह्म है क्योंकि वह ब्रह्म को आरोपित करके उस पर प्रपञ्च का आरोप करती है। अविद्याद्वितय कहकर वाचस्पति मिश्र ने यह सिद्ध किया है कि अविद्या एक रूप नही है क्योंकि एकरूप केवल ब्रह्म है और अविद्या ब्रह्म से भिन्न
मण्डन मिश्र और वाचस्पति मिश्र के इस उपरोक्त कथन से सुरेश्वराचार्य और पद्मपादाचार्य सहमत नहीं है कि अविद्या का आश्रय जीव है या कि अविद्या मानसिक भ्रान्ति है।
सुरेश्वराचार्य और पद्मपादाचार्य का मन्तव्य है कि ब्रह्म ही अविद्या का आश्रय और विषय दोनों है। इनके अनुसार अविद्या का आश्रय जीव नहीं हो सकता क्योंकि वह स्वयं अविद्या जन्य है। अविद्या मानसिक भ्रम नहीं हो सकती क्योंकि वह जीव और जगत दोनों का उपादान कारण है। इस प्रकार वाचस्पति मिश्र के अविद्या सिद्धान्त को अनेक जीवाश्रित ब्रह्मविषयक-अविद्यावाद कहा जाता है। इस मत में एक जीव के मुक्त होने पर संसार का उच्छेद नहीं होता और संसार का उच्छेद न होने से अनिर्मोक्ष प्रसंग नहीं होता है अतएव इनका सिद्धान्त अन्योन्याश्रय दोष से मुक्त है। ये जीव और अविद्या के पारस्परिक सम्बन्ध में आश्रयाश्रयि भाव मानते है और इसके विपरीत ईश्वर और अविद्या में वे विषय-विषयि भाव को स्वीकार करते है।
इस प्रकार शंङ्करोत्तर भी कुछ अद्वैत वेदान्ती अविद्या और माया को एक ही मानते है तथा आवरण और विक्षेप उसकी दो शक्तियां स्वीकार करते है किन्तु कुछ अद्वैत वेदान्ती आवरण शक्ति को अविद्या और विक्षेप शक्ति को 'माया' मानते है। विमुक्तात्मुनि (१२०० ई०) मानते है कि अविद्या का दुर्घटत्व उसका भूषण है, दूषण नहीं है क्योंकि अविद्या किसी प्रकार विरोध मुक्त हो सके तो उसका अविद्यात्त्व ही दुर्घट हो
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