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जीवभ्रान्तिनिर्मितं तद् वभासे भामती पति ।।
अज्ञातं नटवद् ब्रह्म कारणं शंङ्करोऽब्रवीत् ।
जीवाज्ञानं जगद्बीजं जगौवाचस्पतिस्तथा ।। ( कल्पतरु पृ० ४७१)
शङ्कराचार्य ने माना कि स्वशक्ति से ब्रह्म जगत् का 'अभिन्ननिमित्तोपादान' कारण है । किन्तु वाचस्पति मिश्र ने माना कि जो ब्रह्म जगत् का कारण है वह जीव के भ्रम का विषय है । शंकराचार्य ने शांकर भाष्य में स्वीकार किया कि जगत् का कारण रूप ब्रह्म जीवों को अज्ञात है। जबकि वाचस्पति मिश्र ने माना कि जीव का अज्ञान ही जगत् का कारण है। यहाँ यथार्थतः यदि देखा जाय तो शङ्कर-मत और वाचस्पति मत में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं दिखाई देता । यह स्पष्ट होता है कि वाचस्पति मिश्र ने केवल शङ्कर के मत का अधिक स्पष्टीकरण कर दिया है। शङ्कर और वाचस्पति दोनों ही मायोपाधिक ब्रह्म को जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण मानते है । यथार्थतः शुद्ध ब्रह्म कारण- कार्य से परे है । '
वाचस्पति के मत में जीवाश्रित अविद्या से विषयीकृत ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है तथा माया सहकारिणी कारण है। जीवाश्रिता विद्या विषयीकृत ब्रह्म ही जगद्- आकार में विर्वतमान होता है। इस प्रकार माया अकारण होते हुये भी जगत का सहकारी कारण है । परन्तु भामती में कई स्थलों पर वाचस्पति मिश्र ने शङ्कराचार्य की आलोचना भी की है । उदाहरणार्थ- ब्रह्मसूत्र १/१ / ३१ के भाष्य में शंकराचार्य ने त्रिविध ब्रह्मोपासना का वर्णन किया है- प्राणधर्मेण प्रज्ञाधर्मेण और स्वधर्मेण इसमें वाचस्पति ने कहा- प्राणोपासना विधेय है विधेय के भेद से विधि में वाक्यभेद स्फुट है।
'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' सूत्र में भाष्यकार ने 'अथ्' का अर्थ 'आनन्तर्य किया है। किन्तु वाचस्पति मिश्र ऐसा नहीं मानते हैं वे कहते हैं- 'न वयम् आनन्तर्यार्थतां
गंगाधरेन्द्र सरस्वती ने वेदान्त सूक्त मंजरी में वाचस्पति मिश्र के मत को इस प्रकार व्यक्त किया हैब्रह्मैवजीवाश्रितयाऽविद्यया विषयीकृतम्। वाचस्पतिमते हेतुर्माया तु सहकारिणी ।।
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