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व्यासतीर्थ के न्यायमृत ग्रन्थ का खण्डन उन्होंने 'अद्वैतसिद्धि' ग्रन्थ में किया है। अतः मधुसूदन सरस्वती का स्थितिकाल १६वीं शदी का उत्तरार्ध और सत्रहवीं का पूर्वार्ध माना जाता है। क्योंकि उन्होंने 'अद्वैतसिद्धि में श्री दीक्षित का उल्लेख 'परिमलकार' के रूप में किया है। शिष्यगण- १. श्री बलभद्र भट्टाचार्य। २. शेषकृष्ण पंडित प्रसिद्ध वैयाकरण भट्टोजी दीक्षित के गुरु तथा शंकराचार्य के सर्वसिद्धान्त संग्रह के टीकाकार तथा। ३. श्री पुरूषोत्तम सरस्वती उनके तीन विद्वान शिष्य हुये है। रचनाएं:- १. संक्षेप सार संग्रह- सर्वज्ञात्ममुनि के संक्षेपशारीरक की टीका २. वेदान्त कल्प लातिका- इसमें अद्वैतवेदान्त के अनुसार मोक्ष का वर्णन है ३. सिद्धान्त बिन्दु ४. अद्वैतसिद्धि ५. अद्वैतरत्नरक्षणम् ६. आत्मबोध टीका ७. महिम्नस्त्रोत ८. भक्तिरसायन ६. आनन्द मन्दाकिनी १०. गूढार्थदीपिका ११. ईश्वर प्रतिपत्ति प्रकाशिका १२. कृष्ण कुतूहल (नाटक) १३. हरिलीला व्याख्या
उपर्युक्त ग्रन्थों से स्पष्ट होता है कि मधुसूदन सरस्वती ने वाध प्रस्थान के अन्तर्गत अद्वैतसिद्धि और अद्वैतरत्न रक्षण नामक दो ग्रन्थ लिखे। इसमें से 'अद्वैतसिद्धि' एक महान ग्रन्थ है जिसके खण्डन-मण्डन में अनेको ग्रन्थ लिखने में विद्वानों ने दिलचस्पी दिखायी। उनके अन्य ग्रन्थों में भक्ति सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है। उन्होंने ही अद्वैतवेदान्त में सर्वप्रथम श्रीकृष्ण का अभेद परब्रह्म से किया है। इस सन्दर्भ में उनका यह श्लोक अत्यन्त प्रसिद्ध है
वंशीविभूषित करान्नव नीरदाभात् पीताम्बरादरुण बिम्ब फलाधरोष्ठात्। पूर्वेन्दु सुन्दर मुखादरबिन्द नेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने ।।
(गूढार्थदीपिका के अन्त में प्रथम श्लोक)
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