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________________ खाण्डनिक (वैतण्डिक) है। ये प्रमाणादि की सत्ता नहीं मानते है। इनका अपना कोई पक्ष नहीं होता है। खण्डन मात्र करने के लिए ये कथा में प्रवृत्त होते है। खण्डनकार की खण्डन में 'प्रवृत्ति' प्रपञ्चशङ्कर में अनिर्वचनीयता को सिद्ध करती है। यह तब तक नहीं हो सकता था जब तक कि प्रपञ्च को सत्य मानने वाले प्रबल द्वैती नैय्यायिकों द्वारा प्रमाण-प्रमेय की की गई व्याख्या का खण्डन न हो। इसलिये खण्डन को 'अनिर्वचनीयता सर्वस्व' भी कहते है। 'अनिर्वचनीयतावाद' वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त है इसके बिना वेदान्त प्रतिपाद्य अद्वैतब्रह्म की सिद्धि गगनकुसुम के समान है किन्तु यह भी नहीं है कि यह प्रपञ्च को शशविषाणादि के समान अलीक मानता है। हां इसे वह मिथ्या अवश्य मानता है। तुच्छ और मिथ्या में अन्तर है तुच्छ तो वह है जिसकी प्रतीति कहीं न हो रही हो जैसे गगन कुसुम, शशविषाण, वन्ध्यासुत आदि। प्रपञ्च ऐसा नहीं है इसकी प्रतीति होती है। कालान्तर में जब बाध होता है तब मिथ्यात्त्व की प्रतीति होती है। अन्तर इतना है कि रज्जूसर्प में भ्रम का संसार दशा में ही बाध होता है और संसार रूपी भ्रम का श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा आत्मसाक्षात्कार के बाद। अतः संसार दशा में प्रपञ्च की सत्ता मानी जाती है। इस प्रकार प्रत्येक लक्षण को गलत सिद्ध करके श्री हर्ष ने वास्तव में यह प्रतिपादित किया है कि जो सत् है उसका लक्षण या निर्वचन नहीं हो सकता है। उन्होंने अनिर्वचनीयतासार सर्वस्ववाद की स्थापना की है जो अद्वैतवाद का मुख्य प्रतिपाद्य है। चित्सुखाचार्य (१२२० ई०) चित्सुखाचार्य का अवतरण दर्शन में ऐसे समय में हुआ था जब दो प्रबल धाराएं अद्वैत मत को हानि पहुंचा रही थी। एक ओर गंगेश आदि नैयायिक न्यामत को सर्वोच्चता की ओर ले जा रहे थे तथा दूसरी ओर वैष्णव आचार्य खुलकर अद्वैतमत का खण्डन कर रहे थे। ऐसे समय में अद्वैतमतावलम्बी चित्सुखाचार्य ने न्याय दर्शन का 305
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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