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विचारों पर पड़ा है। कतिपय विद्वान आचार्य शङ्कर के विचारों एवं अभिव्यक्त विधियों पर बौद्ध दर्शन का प्रभाव स्वीकार करते है, किन्तु वहीं अधिकांश इस प्रभाव को अस्वीकार करने के पक्ष में भी अकाट्य तर्क प्रस्तुत करते है । अतएव इस विवादास्पद बिन्दु को यहीं छोड़कर देना प्रासंगिक होगा ।
कतिपय दार्शनिक 'योगवासिष्ठ' ग्रन्थ का प्रभाव भी शङ्कर की रचनाओं पर स्वीकार करते है क्योंकि कुछ दार्शनिकों का मत है कि ब्रह्म के स्वरूप सम्बन्धी विचार और व्यक्तिगत आत्मा के साथ ब्रह्म के तादात्म्य का सिद्धान्त विशेष रुप से उसी से प्रभावित है।' डा० बी० एल० आत्रेय लिखते हैं कि - "शङ्कर की विवेकचूड़मणि, अपरोक्षानुभूति, शतश्लोकी जैसी काव्यात्मक रचनाओं की तुलना करने पर स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि शङ्कर योगवासिष्ठ से केवल प्रभावित ही नहीं थे वरन् उनकी शिक्षाओं को यथावत् ग्रहण किया है। डा० दास गुप्ता ने स्पष्ट रूप से सिद्ध किया है कि योगवासिष्ठ का काल हर हालत में शङ्कर का पूर्ववर्ती है। अतएव शंकर पर योगवासिष्ठ का प्रभाव मानना तर्कसंगत है ।
शङ्कर के धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों पर आचार्य गौणपाद के प्रभाव को भी स्वीकार किये बिना नहीं रहा जा सकता है। शंकर ने गौणपाद की माण्डूक्य कारिका पर भाष्य लिखकर स्वयं उनसे सम्बन्धित बताया है ।
वस्तुतः उपनिषद् शङ्कर के धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों के मुख्य स्रोत है । यह मत समस्त अन्तः वाह्य साक्ष्यों से प्रमाणित सिद्ध होता है । ब्रह्मज्ञान के सम्बन्ध में स्वयं शङ्कर ने उपनिषदों को सर्वोच्च और स्वतंत्र आप्तवाक्य के रूप में माना है। उदाहरणार्थ- उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकारा है कि परमात्मा या ब्रह्म केवल वेदान्त
योगवसिष्ठ तृतीय अध्याय - ७-२० चतुर्थ अध्याय - २२-२५ पंचम अध्याय ४३, २० इण्डियन आइडियलिज्म- पृ० १५४
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