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वास्तविक तथा जिज्ञासा भाव निःसृत संशयवाद, विश्वास को उसकी स्वाभाविक नीवों पर स्थापित करने में सहायक होता है। नींव को अधिक गहराई में डालने की आवश्यकता का ही परिणाम महान दार्शनिक हलचल के रूप में प्रकट हुआ और जिससे छः दर्शनो का प्रादुर्भाव हुआ। जिसमें काव्य तथा धर्म का स्थान विश्लेषण और शुष्क समीक्षा ने ले लिया।
रूढ़िवादी सम्प्रदाय अपने विचारों को संहिताबद्ध करने तथा उनकी रक्षा के लिये तार्किक प्रमाणों का आश्रय लेने को बाध्य हो गये। इस दर्शन का समीक्षात्मक पक्ष उतना ही महत्वपूर्ण हो गया जितना कि अभी तक प्रकल्पनात्मक पक्ष था। क्योंकि दर्शन काल से पूर्व सम्पूर्ण जगत के स्वरूप के संबन्ध में कुछ सामान्य विचार तो अवश्य प्राप्त हुये थे, किन्तु यह अनुभव नहीं हो पाया था कि किसी सफल कल्पना का आधार ज्ञान का एक समीक्षात्मक सिद्धान्त ही होना चाहिये ।।
डा० राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन में यह स्पष्ट किया है कि समालोचको में विरोधियों को इस बात के लिये विवश कर दिया कि वे अपनी परिकल्पनाओं की प्रमाणिकता किसी दिव्य ज्ञान के सहारे करे जो जीवन और अनुभव पर आधारित हो। इस प्रकार आत्मविद्या अर्थात् दर्शन को अब आन्वीक्षिकी अर्थात् अनुसंघान रूपी विज्ञान का सहारा मिल गया। दार्शनिक विचारों का तर्क की कसौटी पर इस प्रकार कसा जाना कट्टर वादियों को रूचिकर प्रतीत नही हुआ। इस प्रकार जो तर्क की कसौटी पर खरा उतर सके उसे 'दर्शन' का नाम दिया गया।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी जबकि इसके विशेष अध्ययन की आवश्यकता अनुभव की गई भारत में एक कमबद्ध दर्शन के प्रारम्भ के लिये प्रसिद्ध है और ईसा पूर्व पहली
न्याय भाष्य, ११, मनु ७४३। कौटिल्य (३०० ई० पू० लगभग) का कहना है कि आन्वीक्षिकी विद्याध्ययन की एक अलग की शाखा है और अन्य तीन शाखा-त्रयी अर्थात वेदो, बाता, अर्थात वाणिज्य और दण्डनीति, राजनिति या कूठनीति के अतिरिक्त है। (१:२)
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