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हुआ तो 'काषाय-वस्त्रों' का परित्याग करके श्वेत वस्त्र धारण करूँगा। उभयभारती ही जय-पराजय का निर्णय करेगी।"
मण्डन मिश्र ने भी अपना विषय रखा, वेद का कर्मकाण्ड ही प्रधान है, यही प्रमाण है, उपनिषद प्रमाण नहीं है। दुःखों से मुक्ति कर्म के द्वारा ही होती है कर्म का अनुष्ठान प्रत्येक मनुष्य को आयु पर्यन्त करना चाहिए। यदि मैं इस शास्त्रार्थ में पराजित हुआ तो गृहस्थ धर्म को छोड़कर सन्यास ग्रहण कर लूँगा।
विद्वान्मण्डली के बीच वादी और प्रतिवादी में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ, उत्तरोत्तर शास्त्रार्थ की उत्कृष्टता और गंभीरता बढ़ती गयी, एक-दूसरे को पराजित करने के लिये प्रयत्न हो रहा था। आचार्य ने श्रुति प्रमाण से मण्डन को निरुत्तर कर दिया कि वेदान्त ब्रह्मज्ञान में प्रमाण है, कर्म में नहीं। तदन्तर 'तत्वमसि' महावाक्य को लेकर निर्णायक शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। मण्डन मिश्र मीमांसक होने के कारण द्वैतवादी थे। उधर शङ्कर वेदान्ती होने के कारण अद्वैत के प्रतिपादक थे। मण्डन उपनिषदों में द्वैतपरक स्वीकार करते है, अद्वैत नहीं। मण्डन मिश्र ने पूर्वपक्ष ग्रहण किया और आचार्य शङ्कर ने उत्तर पक्ष । मण्डन मिश्र ने कहा- यतिश्रेष्ठ! जीव और ब्रह्म की एकता कभी सिद्ध नहीं हो सकती, यह तीनों प्रमाणों से बाधित है। आचार्य शङ्कर ने उत्तर दिया कि जीव और ब्रह्म की एकता को सिद्ध करने के लिये प्रमाणों की आवश्यकता ही नहीं है। 'तत्त्वमसि' के विरुद्ध मण्डन ने मुण्डकोपनिषद की इस श्रुति का उदाहरण दिया।'
आचार्य शङ्कर ने आक्षेप का निराकरण करते हुये कहा- हे गृहस्थ शिरोमणि! इस श्रुति में 'बुद्धि और 'पुरुष' का भेद प्रदर्शित किया गया है, न कि 'जीव' और 'ब्रह्म' का। पुरुष उससे सर्वथा भिन्न है इसलिये वह सुख-दुखों के भोगने वाले फलफलों से
1 जय राम मिश्र- आदि शंकराचार्य जीवन और दर्शन पृ० ८२ 2 शंकर दिग्विजय-८/७८ से १४
द्वा सुपर्णा सुयजा सखाया समानं वृक्ष परिषस्वजाते। तरोरन्य. पिप्पल स्वाद्वत्ति अनश्ननन्यो अभिचाकशीति ।। मुण्डकोपनिषद्-३/१/१
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