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श्री शङ्कराचार्य शङ्कर पूर्व भारत
श्री शङ्कराचार्य के आविर्भाव से पूर्व भारत में विभिन्न मत-मतान्तरों का बोलबाला था, तथा जैन और बौद्ध धर्म मुख्य रूप से प्रचलित था। किन्तु जैन धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म काफी शक्तिशाली था। उस समय बौद्ध धर्मद्वारा खुलकर वैदिक धर्म को चुनौती दी गयी।
यद्यपि यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि बुद्ध ने अपने धर्म की नींव उपनिषदों पर ही खड़ी की थी किन्तु अपने धर्म की विशिष्टता स्थापित करने के लिये वेदों की प्रामाणिकता पर संदेह किया और आत्मावाद का खण्डन किया। वेदविदित यज्ञों की आलोचना किया।
बौद्ध धर्म की सुदृढ़ता मौर्य युग तथा कुषाण युग में और अधिक हुई। उस युग में बौद्धों के प्रभुत्व का आभास माधवाचार्य ने अपने ग्रन्थ 'शंकर दिग्विजय' में इस प्रकार दिया है- साशिष्यं संघाः प्रविशन्ति राज्ञां गेहं तदादि स्ववशे विधतम् । राजा मदीयोऽजिरमस्मदीयं तदाद्रियध्वं न तु वेदमार्गम् ।।
(शङ्कर दिग्विजय सर्ग ७/६१) जैन धर्म भी वैदिक धर्म का कम विरोधी नहीं था। जैन मतावलम्बी अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे तथा वैदिक धर्म का खण्डन करते थे। जैन धर्म भी बौद्ध धर्म की भांति श्रुतियों और उपनिषदों पर आधारित था किन्तु श्रुतियों को ही अप्रमाणित सिद्ध करने में अपनी सारी शक्ति लगा रखी थी। वैदिक धर्मावलम्बी भी अपने धर्म के पुनरुत्थान के लिये प्रयत्नशील हुये। इसी समय मौर्यों का पतन हुआ और ब्राह्मण वंशी शासक पुष्यमित्र ने दो बार अश्वमेध यज्ञ किये। मनु द्वारा मनुस्मृति की रचना भी इसी समय की गयी। गुप्त वंश के राजाओं ने वैदिक धर्म के अभ्युदय के लिये अतीव प्रयास
किया।
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