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प्रकार सारा द्वैत व्यवहारिक दृष्टि से हे। परमार्थतः कोई द्वैत नही है। यह सारा द्वैत केवल मनोदृश्यमात्र है मन के अमनीभाव को प्राप्त होते ही द्वैत की तनिक भी उपलब्धि नही होती है। ' मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः ।' (मा० का० १–१७) अद्वैततत्व के विषय में आचार्य गौणपाद ने लिखा है
न कश्चिज्जायते जीवः संम्भावोऽस्य न विद्यते।
एतत्तदुत्तमं सत्यं यत्र किंचिन्न जायते।। (मा० का० ३/४८) मोक्षवाद
__ इस मत में द्वैत ही प्रपञ्च है, प्रपञ्च ही संसार है और प्रपञ्च का अभाव ही मोक्ष है। यथोक्तम्-"प्रपञ्चोपशमः शिवः । (मा० का० १-२६) जैसे स्वप्न दिखाई पड़ता है, जैसे माया दिखाई पड़ती है, जैसे गन्धर्व नगर होता है, उसी प्रकार वेदान्त में निष्णात् बुद्धिमानों को यह विश्व दिखाई पड़ता है।
स्वप्नमाये यथा दृष्टे गन्धर्व नगरं यथा।
तथा विश्वमिदं दृष्टं वेदान्तेषु विचक्षणै।। (मा० का० २-३१) मोक्ष नित्य प्राप्त है यह आत्मज्ञान है इसकी प्रतीति अज्ञान के निवृत्त हो जाने पर सब को होती है। बन्धन और मुक्ति उत्पत्ति और निरोध, साधक और साध्य ये सब काणी के विलासमात्र है। परमार्थ तत्त्व केवल अद्वैत है।
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