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औडुलोमि का मत प्रकट किया है। "क्योंकि जीव परमात्मा से अत्यन्त भिन्न होता हुआ देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के सम्पर्क से सदा (संसारीदशा में) कलुष रहता है, ज्ञान-ध्यान आदि के अनुष्ठान से उसका वह कलुष जब दूर हो जाता है (अर्थात उसे ब्रह्मज्ञान हो जाता है) तब देह-इन्द्रिय आदि संघात से उत्क्रमण करते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ ऐक्य उत्पन्न होता है। यह अभेध कथन का आधार है। इसका तात्पर्य है कि आगे आने वाले अभेद का आश्रय लेकर भेदकाल में भी अभेध कह दिया गया है। पांच ने कहा है मोक्ष से पहले जीवात्मा-परमात्मा का भेद ही रहता है मुक्त होने पर तो भेद नही, क्योकि तब भेद का हेतु नही रहता है।" भामतीकार के मतानुसार औडुलोमि-मत के साथ पांचरार्मिक आचार्यों के मतो में ज्यादा साम्य है।' ४. कार्णाजिनिः
आर्ष परम्परा के एक मुख्य आचार्य कार्णाजिनिः भी थे। इनका भी कोई ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता है। ब्रह्म सूत्र में एक स्थल पर आचार्य कार्णाजिनिः का उल्लेख हुआ है। 'चरणादिति चेन्नोपलक्षणार्थेतिकार्णाजिनिः (ब्रह्म सूत्र ३/१/६) ब्रह्म। यह छान्दोग्य उपनिषद के ५।१०७ से सम्बन्धित है। श्री मुरलीधर पाण्डेय ने लिखा है कि- 'अस्य मतम अद्वैतवादोद्वैतवादोवेति स्पष्टं न प्रतीयते। केवलमात्मनः पुनर्जन्म विषयेऽस्यं कथयति यद् 'अनुशयः' एव पुर्नजन्मकरणं न तु शीलमाचारो वा अनुशयो नाम अभुक्तं कर्म 'अनुशय’ उन संस्कारों एवं धर्म-अधर्म (अदृष्ट) का नाम है जिन कर्मों का फल अभी भोगा नहीं गया है तथा वे संस्कार आदि रूप से आत्मा में अवस्थित है। इस विषय में कार्णाजिनि का विचार है उपनिषद का 'चरण' पद 'अनुशय' का का उपलक्षण द्योतकहै,
श्री उदय वीर शास्त्री। वेदान्त दर्शन का इतिहास, पृ०१४२ प्रकाशन गोविन्दराम हासानन्द दिल्ली-६। 2 "एतदुक्तं भवति भविष्यन्तमभेदमुपादाय भेदकालेडप्य भेद उक्त । यथाहुः पाञ्चरात्रिका आमुक्तेर्भेद एवस्याज्जीवस्य चपरस्य च ।
मुक्तस्य तु न भेदोडस्ति भेद हेतोरभावतः । "ब्र०सू०१/४/२१ शांकर भाष्य पर भामती आचार्य वाचस्पति। 3 श्री मुरलीधर पाण्डेय । शङ्करातप्रागद्वैतवाद. पृ०-६० 4 श्रुतिरनुशयसद्भावप्रतिपादनायोदाहृता- तद् इह रमणीयचरणा (छान्दो०५।१०।१)
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