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नपुंसकता को न प्राप्त हो । दुनियाँ में न तो पाप है, न दुःख है, न रोग है, न शोक है यदि दुनियाँ में कोई ऐसी वस्तु है जिसे पाप कहा जा सकता है तो वह है भय । अपने अन्दर से भय को निवृत्त कर देना चाहिये ।
गीता का दार्शनिक सिद्धान्त
गीता का प्रमुख दार्शनकि सिद्धान्त है कि जो असत् है उसका भाव नहीं हो सकता और जो सत् है उसका अभाव नहीं हो सकता है
'नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सतः । (गीता - २ / १६)
सत् से तात्पर्य है कि जो त्रिकाला बाधित सत् हो अर्थात् जो भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों कालों में सर्वदा, सदा, नित्य, एक रस और अपरिवर्तनशील रहे । यह लक्षण शुद्ध आत्मतत्व या ब्रह्म का है और वही 'सत्' है। गीता में आत्मतत्व के लिये नित्य अविनाशी, अज, अव्यय, सर्वगत, अचल, सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य आदि शब्द प्रयुक्त किये गये हैं ।'
आत्मा ही नित्य है उसी आत्मा के अतिरिक्त सभी अन्य नश्वर है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति पुराने जीर्ण वस्त्रों को उतारकर दूसरे नये वस्त्रों को पहन लेता है उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण करता है यथा- 'नवानि देही ..२/२२
आत्मा को अमर माना गया है शरीर नाशवान है इस स्थिति में आत्मा की अमरता को सिद्ध करने के लिये पुनर्जन्म की धारणा प्रस्तुत की गयी है। इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते हैं और इसको आग जला नहीं सकती है इसको पानी भिगा या गला नहीं सकता और वायु सुखा भी नहीं सकती है।
1 गीता २/२० 2 गीता
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