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________________ कर्मयोग का गीता में महत्वपूर्ण स्थान है। लोकमान्य तिलक प्रभृति गीता को कर्मयोग शास्त्र ही मानते हैं, भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को कर्मयोग का ही उपदेश दिया है। अतेव कर्मयोग ही गीता का मुख्य विषय है। अर्जुन को उपदेश देते समय स्वयं भगवान ने कहा है कि यह कर्मयोग का रहस्य बड़ा कठिन है। (गहना कर्मणोगतिः) (४/१७)। और अन्त में भगवान के उपदेश से प्रभावित होकर अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हुये। अर्जुन के माध्यम से श्रीकृष्ण ने सभी लोगों को कर्मयोग का पाठ पढ़ाया है। गीता से बहुत पूर्व भीमासकों ने कर्म के महत्व को समझा। मीमांसकों के अनुसार वेद का कर्मकाण्ड ही उपयुक्त है और ज्ञानकाण्ड अनुपयुक्त है। जैमिनी ने स्पष्ट रूप में कहा कि- आम्नाय (वेद) का मुख्य प्रयोजन कर्म का प्रतिपादन है अतः उससे भिन्न ज्ञानप्रतिपादक वाक्य निरर्थक है। 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वाद् आनर्थक्यम तदर्थानाम । (मीमांसा सूत्र १/२१) गीता में कर्मयोग को ही श्रेष्ठ माना गया है। डा० राधाकृष्णन के अनुसार 'कर्मयोग ही गीता का मुख्य मौलिक उपदेश है।' गीता यह मानती है कि ईश्वर स्वयं कर्मठ है अतः ईश्वर से मिलने के लिये कर्ममार्ग को अपनाया जा सकता है। कर्म से आशय व्यक्ति के शुभ आचरण से है। शुभआचरण से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। गीता में मनुष्य को कर्म के प्रति सचेत किया गया है किन्तु कर्मों के फल की चिन्ता से पूर्णतया मुक्त रहने का आदेश दिया गया है। ईश्वर के प्रति सभी कर्मों को अनासक्त हो करना ही कर्मयोग है। अर्थात् आसक्ति रहित कर्म का उपदेश गीता में श्रीकृष्ण ने दिया है। आसक्ति रहित कर्म का अर्थ लोग कई तरह से करते हैं। कुछ लोगों के अनुसार अनासक्त होने का अर्थ है निरभिप्राय हो जाना। यदि यह अर्थ स्वीकार भी कर लिया जाय तो हृदयहीन पशु और दीवारें निष्काम कर्म के सम्पादन के सबसे बढ़िया उदाहरण हैं। किन्तु सत्य तो यह है 165
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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