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मिलते हैं तथापि इसमें उपनिषदों की सप्रपञ्चवादी ब्रह्म की अवधारणा तथा भागवत धर्म के ईश्वरवाद का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। वस्तुतः गीता में इन दोनों विचारधाराओं में समन्वय करने का प्रयास किया गया है। गीता में उपनिषदों का परब्रह्म भागवत धर्म के प्रभाव में शरीरधारी (सगुण) ईश्वर बन जाता है। यह शिव, विष्णु आदि नामों से जाना जाता है। गीता एक ऐसी अनन्त शक्ति में विश्वास करती है जो सभी सीमित, आदि वस्तुओं में जीवन का संचार करता है। गीता में ईश्वर को सब का पिता, माता, मित्र एवं सखा भी माना गया है। गीता में ईश्वर के दो रूपों अर्थात् व्यक्त एवं अव्यक्त का वर्णन किया गया है। परमात्मा के अव्यक्त रूप को शुद्ध, निर्गुण, अव्यक्त, अनादि आदि रूपों में वर्णित किया गया है। ये भेद हैं- सगुण, सगुण-निर्गुण तथा निर्गुण । परमात्मा के इस अव्यक्त रूप को प्रतिपादित करने वाली गीता का एक कथन इस प्रकार है, "यह परमात्मा अनादि, निर्गुण, तथा अव्यक्त है, इसलिये शरीर में स्थित रहकर भी न तो कुछ करता है और न लिपायमान होता है" (गीता. १३/३१) । गीता में कुछ कथन भी है जो परमात्मा के व्यक्त रूप की ओर संकेत करते हैं- जैसा कि कहा गया है ।
'प्रकृति ही मेरा स्वरूप है' (गीता १ / ८) तथा 'जीवात्मा ही मेरा सनातन अंश है' (गीता १५ / ७) । इन दोनों रूपों में व्यक्त और अव्यक्त में अव्यक्त को ही श्रेष्ठ माना गया है तथा इसे ही परमात्मा का सच्चा स्वरूप माना गया है। गीता में ईश्वर की परा और अपरा दो शक्तियों का विवेचन प्राप्त होता है ईश्वर की परा प्रकृति सीमित तथा सशरीर आत्माओं अर्थात् जीवात्माओं की नियामक हैं और साथ ही यह चेतन है । यह उच्चश्रेणी की है। इसके साथ अपरा प्रकृति जड़ एवं अचेतन है तथा निम्न श्रेणी की है। अपरा प्रकृति के आठ भेदों का भी उल्लेख है- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार अपरा प्रकृति के आठ भेद हैं।
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