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महान सत्य की चर्चा छिड़ जाती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी विशाल वीरान प्रदेश में किसी यात्री को अकस्मात् यत्र-तत्र अति सुन्दर गुलाब मिल जाता है, जिसकी पत्तियां, कांटे, जड़ें सभी परस्पर उलझी हैं। उनकी तुलना में गीता इन सत्यो के सदृश हैं जो सुन्दर ढंग से यथास्थान व्यवस्थित हैं। वह एक सुन्दर पुष्पमाला के या सर्वोत्तम चुने हुये फूलों के एक गुलदस्ते के समान हैं। उपनिषदों में कई स्थलों पर श्रद्धा की विस्तृत विवेचना की गयी है, किन्तु भक्ति का उल्लेख अल्प ही है। दूसरी ओर गीता में भक्ति की वार विवेचना ही नहीं की गयी है वरन् उसमें भक्ति की अर्तनिष्ठ भावना चरम उत्कर्ष तक पहुंच गयी हैं।
__अब प्रसंग यह है कि गीता की मौलिकता किस बात में है, जिससे पूर्ववर्ती अपने सभी शास्त्रों से अलग विशेषता रखती है। यद्यपि गीता के अविर्भाव के पूर्व भी योग, ज्ञान, भक्ति आदि सभी के दृढ़ अनुयायी थे तथापि वे सब आपस में विवाद करते थे क्योंकि वे सब अपने अपने द्वारा अपनाये गये मार्गों की सर्वोत्कृष्टता का दावा करते थे। इन सभी पृथक मार्गों में समन्वय स्थापित करने का कभी किसी ने प्रयास ही नहीं किया। गीता के रचयिता ने ही सर्वप्रथम उसमें समन्वय लाने का प्रयास किया। तत्कालीन प्रचलित सभी धर्मसम्प्रदायों के सर्वोत्तम तत्वों को उन्होंने लिया और गीता में सूत्रबद्ध कर दिया।
महाभारत में बतलाया गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने महाभारत रूपी समुद्र का मन्थन कर उसके सार 'गीतामृत' को अर्जुन के मुख में होम किया
भारतामृत सर्वस्व गीता या मथितस्य च। सारमुदाधृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम् ।।
(महाभारत भीष्म पर्व ४३/५)
'स्वामी विवेकानन्द भगवान श्रीकृष्ण और श्रीभगवद्गीता, पृ० २६
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