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जीवात्मा और संसार के पदार्थों की सत्ता भी स्वीकार की गई है। इसी प्रकार उपनिषदों में भी वेद मंत्रों को लेकर उसी प्रकार सिद्धान्त प्रतिपादित किया है जैसा कि वेद ने किया है। वेद और उपनिषदों में मुख्य रूप से यह अन्तर दृष्टिगोचर होता है कि वेद एक सागर के समान है जिसमें सभी प्रकार की विधाओं का वर्णन बीजरूप में विद्यमान रहता है, और उपनिषद् वेदों का केवल एक अंग की भाँति है अर्थात् उपनिषदें ज्ञानकाण्ड की अनुभूतिपरक व्याख्याएं प्रस्तुत करती हैं।
वेद और उपनिषदों में ब्रह्म सम्बन्धी मंत्रों में कुछ साम्य दिखाई देता है- जिस प्रकार उपनिषदों में एक ब्रह्म को माना गया है उसी प्रकार वेदों में भी एक ईश्वर का वर्णन है। १. सृष्टि या जगत् में जो कुछ भी जड़-चेतन रूप है वह समस्त परमेश्वर से ही
व्याप्त है। २. जो सम्पूर्ण जगत का स्वामी, कर्ता, धर्ता है, उसी परम सत्ता का वर्णन परम
पुरूष, सृष्टि का अध्यक्ष, देवों के देव तथा ब्रह्म आदि नामों से अनेक मंत्रों में पाया
जाता है। ३. ब्रह्म का साक्षात्कार जिज्ञासु कर लेता है तब समस्त भुवनों का साक्षात्कार कर
लेता है, क्योंकि वह ब्रह्म सूक्ष्मातिसूक्ष्म है।' ४. विद्वान, ब्राह्मण उसी एक ब्रह्म की स्तुति भरी वाणियों से भक्ति करते हैं।' ५. उसी एक ईश्वर को अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, मातरिश्वा आदि नामों से कहा
जाता है।
'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।। (यजु० ४०-१-ईशो-१) २ यत्र लोकाश्च कोशाश्चापों ब्रह्म जनाविदुः। यसच्च यत्र सच्चान्त स्कम्भतं ब्रूहि कतम. स्विदेव स।। (अथर्व०
१०/६/१०) 'ब्रह्माणं ब्रह्मवाहमं गोभि सखाय मृग्मियम । (गांदो हसेहुवो- ऋ०६/६/४५/७)।।
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