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प्रदान करता है, और ससार मे अन्याय और अनीति का झमावात चलाकर मानवजगत को पापो के सागर मे निमग्न करवा देता है, सन्नारियो के पातिव्रत्य धर्म को लुटवादेता है । उसे ईश्वर कहना ईश्वर शब्द का ही दुरुपयोग करना है। ईश्वर जैसी पतितपावन और निष्कर्म महाशक्ति इस प्रकार के पाप-पूर्ण झझट मे कभी हस्तक्षेप नही कर सकती और नाही वह किसी जीव को ऐसे अधमकर्म करने की प्रेरणा प्रदान कर सकती है। इसीलिए भगवान महावीर कहते है कि कर्म करने मे जीव स्वतत्र है, ईश्वर के साथ उस का कोई सम्बन्ध नही है, वह ससार के किसी झझट मे कोई हस्तक्षेप नही करता है।
दूसरी बात, यदि ईश्वर को कर्म का कराने वाला मान लिया जाएगा तो ससार मे न कोई पापी कहा जा सकता है। और न किसी को चोर, डाकू, गाठकतरा, वेश्यागामी, परस्त्रीलम्पट, आततायो, कसाई, कृतघ्न आदि कह कर घृणित या निन्दित समझा जा सकता है । क्योकि ईश्वर ने जिस किसी जीव से जो कर्म कराना पसन्द किया, उस जीव ने वैसा ही कर्म कर दिया । जीव अपनी इच्छा से तो कुछ कर ही नही सकता है, जो ईश्वर कराता है जोव वह कर देता है। इस प्रकार ईश्वर को सर्वेसर्वा मानकर कर्म कर्ता जीव को बुरा या नीच आदि शब्दो से व्यवहृत नही किया जाना चाहिए। क्योकि उस वेचारे का अपना तो कोई दोप है ही नही, ईश्वर की जैसी आज्ञा होती है वह वैसा कर देता है। ईश्वर की आज्ञानुसार चलने पर जीव को दोपी या पापी कहा व समझा भी कैसे जा सकता है ? इस प्रकार जीव की अच्छी-बुरी सारी प्रवृत्तियो का सारा उत्तरदायित्व ईश्वर पर ही आ पड़ता है,