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केवल हिंसा है । वह है बन्दरों को विदेश भेजना। ये निरीह बन्दर अपने परिवार सहित जंगलों और बाग़ों में फूल और पत्तियां खा कर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। मूक प्राणियों को लाखों की संख्या में पकड़ कर दूसरे देशों को भारत बेचता है, जहां निर्दयतापूर्वक उन्हे घोर कष्ट देकर मार डाला जाता है। पहले भारत के निवासी इन बन्दरों को हनुमान के वंशज समझकर सैंकडों मन चना और गुड़ खिलाया करते थे, तब अनाज की पैदावार भी इतनी होती थीं कि इसे कोई अपव्यय नहीं समझता था । आज हालत यह है कि इन बन्दरों को कृषि का शत्रु समझ कर भारत सरकार हिंसा के लिए विदेशियों को बेच देती है और किर भी हालत यह है कि विदेश से अन्न मंगाने पर भी भारत में अन्न-ममस्या पर काबू नहीं पाया जा सका है * ।
यह अहिंसाप्रधान और अहिंसा के अवतार महात्मा गान्धी की जन्मभूमि भारत की हिंसात्मक वृत्तियों का दिग्दर्शन मात्र है । महात्मा गान्धी की हिंसा की दुहाई देने वाली भारत सरकार शान्ति से जरा यह सोचने का कष्ट करे कि क्या वह राष्ट्रपिता महात्मा गान्धीक मार्ग का अनुसरण कर रही है ? तथा यह भी सोचे कि अहिंसा का केवल नाम लेकर महात्मा बुद्ध तथा महात्मा गान्धी की जयन्तियां मना कर भारत सरकार अहिंसा की प्रतिष्ठा कर रही है या उस की अवहेलना ?
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*" श्रमण" के मई-जून १६५८ के अक के श्रीमती राजलक्ष्मी के 'अहिंसक भारत हिंसा की ओर' नामक लेख से साभार उद्धृत कुछ अशं ।