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परिणाम उलटा होता है। बचाए जाने वाले को कष्ट होता है, वह कराह उठता है, कई बार तो उसके जीवन का भी अन्त हो जाता है । प्राणों के बचाने में पूर्णतया सचेत और सतर्क डाक्टर के हाथों से रोगियों के हो रहे प्राणनाश की बात यदा-तदा सुनने में आती ही रहती है। किन्तु ऐसी स्थिति में वह प्राण-नाश हिंसा का रूप नहीं ले सकता. क्यों कि वहां भावना रोगी की सुरक्षा की है, उसे बचाने की है। रागद्वप का वहा कोई चिन्ह भी नहीं है । अत वह हिंसा नहीं है। हिंसा वहीं होती है, जहां राग-द्वष का भाव होता है और रागद्वेष की छाया तले जहां किसी के जीवन को लूटा जाता है । वस्तुत मन, वाणी, और शरीर से काम क्रोध मोह लोभ आदि दूषित मनोवृत्तियों के साथ जब किसी प्राणी को शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार की हानि या पीड़ा पहुंचाई जाती है, तब उसे हिंसा कहा जाता है।
गुरु द्वारा किया गया शिष्यताडन देखने में भले ही हिंसा प्रतीत हो, किन्तु वहां भावना की सात्त्विकता के कारण उसे हिंसा का रूप नहीं दिया जा सकता । इसके अलावा अहित और अनिष्ट की बुद्धि से किसी को पिलाया गया गौ का दूध भी हिंसा का कारण बन जाता है। अत. हिंसा का मूल वैरभाव पूर्ण भावना है। जहा-जहा वेरविरोध की भावना निवास करती है, वहा-वहां हिंसा की उत्पत्ति होती चली जाती है।
अहिसा का अर्थ
हिंसा का अभाव अहिंसा है। अनुकम्पा,दया, करुणा, सहानुभूति और समवेदना आदि अहिंसा के ही पर्यायवाची शब्द है। मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी को शारीरिक, वाचिक और